योग के रहस्यों का तोड़ (YOGA – A CRITICAL STUDY)

(सुस्मिता राय : दिसम्बर १८ , २०१५ )

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1. योग का सनातन हिंदू धर्म के साथ कोई लेना-देना नहीं है
2. योग की शुरुआत इतनी प्राचीन नहीं है: इसकी शुरुआत मध्ययुग के अंत और प्रारंभिक आधुनिक युग में हुई
3. स्वामी विवेकानंद योगासनों के खिलाफ थे
4. आसनों की उत्पत्ति मैसूर पैलेस में ब्रिटिश काल के दौरान हुई और आसनों का तरीका सर्कस करने के तरीके और तांत्रिकों से लिया गया|
5. योग किसी भी बीमारी का इलाज नहीं कर सकते हैं; बल्कि कभी कभी मानव शारीर के लिए हानिकारक भी हैं
6. इन सब के बावजूद, योग विश्व में चलता रहेगा और फलता फूलता रहेगा क्योंकि यह दुनिया में अरबों डॉलर का कारोबार है, वैसे ही जैसे मुस्लिम आतंकवाद और नशीली दवाओं के व्यापार के मामले है।
मैंने पिछले कुछ समय से योग पर अध्ययन किया है… भविष्य में उसके बारे में लिखेंगे…, अगर आप सहमत नहीं हैं तो आपकी बहस का स्वागत है …।

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अजीब, अपरिभाष्य,अस्पष्ट, भावनाएं उत्पत्त होती हैं जब हम कुछ कविता पढ़ते हैं , विभिन्न संगीत सुनते हैं , विभिन्न किस्मों के चित्र देखकर, कुछ उपन्यासों को पढ़ने पर ,यहां तक कि शराब या नशीले पदार्थों का सेवन करने पर। हम आधुनिक जीव विज्ञान के विकास के साथ जानते हैं की शरीर में रासायनिक प्रतिक्रियाओं के कारण सभी भावनाएं पैदा होती हैं । मानव शरीर के भीतर ये रासायनिक प्रतिक्रियाएं हमारे संवेदी अंगों (दृश्य, महक, स्पर्श, चखने, श्रवण) की उत्तेजना से प्रेरित की जा सकती हैं , या कुछ रसायनों की खपत से, या मानव शरीर के सामान्य क्रियाकलाप में बाधा पहुंचा कर (जैसे की श्वास क्रिया पर नियन्त्रण ) करने से प्रेरित किया जा सकता है। इसकी तीव्रता और प्रकार व्यक्ति व्यक्ति के लिए अलग अलग हो सकती है । अति प्राचीन काल से, इंसान विभिन्न अजीब मनोवैज्ञानिक भावनाओं का आनंद लेना पसंद करता है । हमारे पूर्वजों के पास थोड़े ही विकल्प थे ।इसी उद्देश्य से उन्होंने चित्रों, संगीत और नृत्य के प्राग रूप का आविष्कार किया। अजीब भावनात्मक स्थिति में कुछ लोग और अधिक कला रूपों का निर्माण कर सकते हैं। कला के सृजन के लिए, ऐसी भावनाओं (प्रेरणा) को पैदा करने के लिए उन्होंने विभिन्न साधनों को अपनाया। दुर्भाग्य से, उन्होंने समझा की कुछ पौधों को खाने और शरीर के सामान्य क्रियाकलाप को बाधित करने जैसे की श्वास पर नियंत्रण जैसी चीज़ों से भी इस तरह का आनंद प्राप्त किया जा सकता है | हमारे पूर्वज प्रकृति और मानव शरीर से अनभिज्ञ थे उन दिनों, उनके लिए अच्छा और बुरा क्या है इसमें अंतर नहीं कर सकते थे । उनमें से कुछ भोग पाने के लिए गलत दिशा में चले गए। आर्यों ने ‘सुरा’ का आविष्कार किया।उनको ऐसा भी लगा की जैसे इस तरह की मानसिक स्तिथि में कला का निर्माण हों सकता है उसी प्रकार बस ध्यान लगा के ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है | आत्मज्ञान – दिलचस्प बात यह है कि कुछ लोगों ने ऐसा विश्वास करना शुरू कर दिया की ऐसी अजीब भावनात्मकता, ज्ञान का उत्पादन कर सकती है। प्रकृति के नियमों को बस ध्यान लगा के जाना नहीं जा सकता क्योंकि आधुनिक वैज्ञानिक समझ से हम जानते हैं की प्रकृति के रहस्यों को जानना आसान नहीं है | उसके लिए विज्ञान ने हजारों प्रयोग किये और फिर समझा | हमारे पूर्वजों ने मनोवैज्ञानिक आनंद और ज्ञान के लिए ध्यान करना शुरू कर दिया। इस तरह के मामलों में वो अजीब भावनाओं की उत्पत्ति के कारणों से अनजान थे , उन्होंने यह सोचा की इसका कारण अप्राकृतिक या अध्यात्मिक हों सकता है; और यहीं से आध्यात्मिकता की अवधारणा निकलती है। ध्यान करने के लिए उन्हें शांत जगह की ज़रुरत थी जहाँ वो सभी प्रकार के शारीरिक संवेगों को बंद करके ध्यान कर सकें इसलिये उन्होंने पहाड़ों (हिमालय )गहरे वन और गुफाओं को ध्यान के लिए चुना | आराम से ध्यान करने के लिए, उन्होंने कुछ शरीर की मुद्राओं को बनाया जहाँ से योग आसनों की शुरुआत हुई | यह ध्यान के आदिम रूपों, योगासन और प्राणायाम की उत्पत्ति का एक संक्षिप्त स्केच है। न्यूरो विज्ञान, मानव शरीर क्रिया विज्ञान, मानव मनोविज्ञान, मानव शरीर रचना विज्ञान, इस सबसे आधुनिक ज्ञान लैस है; और इसलिए हम आज हमारे पूर्वजों के जीवन के बारे में शोध कर सकते हैं और उसका अध्ययन कर सकते हैं |

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आधुनिक समय में स्वामी विवेकानंद ने अपनी पुस्तक ‘राज योग’ के माध्यम से ‘योग’ शब्द को लोकप्रिय बनाया| स्वामी विवेकानंद आधुनिक पुनर्जागरण संस्कृति के खिलाफ आधुनिक भारत में हिन्दू धर्म के महान रक्षक थे | उन्हें हिंदू धर्म पर बहुत गर्व था और कई साहित्य और भाषण के माध्यम से धर्म और इसके विभिन्न पहलुओं को लोकप्रिय बनाया। हिंदू शास्त्रों में अपने विशाल ज्ञान के साथ, उन्होंने योग की पूरी अवधारणा को आत्मसात किया और अपनी पुस्तक ‘राजयोग’ में इसका चित्रण व्यवस्थित और साफ तरीके से किया । उन्होंने बताया कि योग के 8 भाग (अष्टांग) हैं : यम ( जिसका मतलब अहिंसा, सत्यवादिता, चोरी नहीं करना, संयम, और किसी भी उपहार को स्वीकार नहीं करना),नियम(जिसका मतलब साफ-सफाई, संतोष, तपस्या, अध्ययन और भगवान के प्रति स्व-समर्पण ),आसन (अर्थात बैठने का ढंग ), प्राणायाम (मतलब श्वासों पर नियंत्रण ), प्रत्याहार (मतलब इन्द्रियों पर संयम ),धारण (मतलब मस्तिष्क को एक बिंदु पर केन्द्रित करना ), ध्यान और समाधि (मतलब परा चेतना )| कुल ८ | वास्तव में यह समझ महर्षि पतंजलि द्वारा लिखित ‘पतंजलि योग’ नामक शास्त्रीय पाठ्य पुस्तक से है, और कुछ भी नहीं। भारत में खुदाई में प्राप्त कुछ प्राचीन कलाकृतियों में कुछ लोगों को ध्यान करते हुए दिखाया गया है और ऋग्वेद और कुछ उपनिषद में योग और ध्यान का कहीं कहीं जिक्र है, पतंजलि योग को छोड़कर प्राचीन युग से योग पर और कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। बौद्ध और जैन साहित्य में मुख्य रूप से ध्यान के बारे में उल्लेख है, न कि योग के बार में। दिलचस्प है की २००० वर्ष पुराने पतंजलि योग सूत्र में भी शारीरिक मुद्राओं (योग आसन) के लिए केवल कुल तीन छोटे सूत्र दिए गए हैं जबकि पुस्तक में पूरे १९५ सूत्र हैं ।अर्थ है की योग आसनों को उतनी महत्ता दी ही नहीं गयी है |पतंजलि ने कहा की ध्यान के समय एक आरामदायक और संतुलित शारीरिक अवस्था (आसन) हो| आसन का सिर्फ इतना ही महत्व है|पतंजलि महर्षि ने आसनों के बारे में बस इतना ही कहा है |१८९६ में स्वामी विवेकानंद ने इसी परंपरा का पालन अपनी पुस्तक ‘राजयोग’ में किया है | इसका अर्थ है की २००० साल योग वैसा का वैसा ही रहा जैसा की पतंजलि ने कहा था जब तक की फिर विवेकानंद ने इसपर लिखा | आज हम जिस योग को जानते हैं वह स्वामी विवेकानंद के बाद अगले ७० वर्षों में विकसित हुआ जिसका पतंजलि या विवेकानंद के योग की धारणाओं से कोई लेना देना नहीं था बल्कि एक नए प्रकार के योग का विकास हुआ जो की सिर्फ आसनों की बात करता था | जैसा की आपने ऊपर पढ़ा की योग में आसनों की अधिक महत्ता थी ही नहीं ,वह तो बस ध्यान के समय संतुलित अवस्था में बैठेने के बारे में था | आगे के इतिहास में आप देखेंगे की योग के नाम पर एक अलग ही राग अलापा गया | सिर्फ आसनों की बात की गयी जैसे की आसन कोई महान वस्तु थी | १९६६ में दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के बी एस इयंगर ने एक किताब प्रकाशित की ‘लाइट ऑन योगा’ के नाम से | इस पुस्तक ने योगासनों के २०० प्रकार बताये !!! इस प्रकार का ज्ञान बी एस इयांगर को कहाँ से प्राप्त हुआ इसकी जानकारी तो आधुनिक भारत के महान हिंदूवादी विद्वान स्वामी विवेकानंद को भी नहीं था | क्या इयांगर महोदय विवेकानंद से बड़े विद्वान थे? आज विश्व में योग पर उपलब्ध पूरा साहित्य, पूरा का पूरा या आंशिक रूप से इयांगर की इसी पुस्तक से लिया गया है, या तो यह उसकी नक़ल है या उन्ही बातों को जोड़ तोड़ के प्रस्तुत किया गया है | ‘लाइट ऑन योगा’ को आधुनिक योग का ऋग्वेद कह सकते हैं | इसमें २०० आसनों के लिए ५९२ चित्र हैं | केवल ५ चित्र योग के बाक़ी अंगों (अष्टांग) के लिए | इन २०० आसनों की उत्पत्ति का स्रोत क्या है ??? यह न तो पतंजलि और न ही विवेकानंद द्वारा बताया गया और न ही वेदों में ; न ही हिन्दू पवित्र ग्रंथों या बुद्ध या जैन ग्रंथों में ही उल्लेख है | यह आसनों की भरमार जिसने स्वयं को योग होने का दावा किया, यह आई तांत्रिकों और सर्कस से | तांत्रिक जिन्हें हिंदू अध्त्यात्मिक गुरुओं जैसे की विवेकानंद ने घृणा की दृष्टि से देखा और उन्हें हिंदू धर्म का परिचालक कभी नहीं माना| लेकिन बड़ी ही चालाकी से इयांगर ने अपने इस नए प्रयोग को सनातन हिंदू धर्म से जोड़ दिया |आप महर्षि पतंजलि की पुस्तक ‘योगसूत्र’ का मूल्य २५० रुपये और स्वामी विवेकानंद की किताब ‘राजयोग’ २०० रुपये में पा सकते हैं लेकिन इयांगर की किताब का मूल्य १५०० है |यह है व्यापार योग ..

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योग एक अंधविश्वास है जो की तथ्यों द्वारा पुष्टि न होने और इसके विरुद्ध पुख्ता प्रमाण होने के बावजूद बड़े उत्साह से चलता रहता है | इसको मानने वालों में हिंदू के साथ साथ इसाई ,मुसलमान , सिख और यहाँ तक की किसी धर्म को न मानने वाले पढ़े लिखे लोग भी हैं | इस अर्थ में तो योग धर्मनिरपेक्ष अन्धविश्वास है | योग तनाव प्रबंधन में मदद करता है ऐसे विश्वास के कारण कॉर्पोरेट प्रशिक्षण और पुलिस / सेना के प्रशिक्षण के भाग के रूप में पढ़ाया जा रहा है। कई राजनीतिक नेताओं ने एक स्वस्थ जीवन शैली में बच्चों को लाने के लिए इसे स्कूल सिलेबस का हिस्सा बनाने की सलाह भी दे रहे हैं | बहुत से भारतीय ये सोचते हैं की योग के द्वारा बहुत सी बिमारियों (यहाँ तक की कैंसर )को ठीक किया जा सकता है | अच्छे स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के चलते पढ़ा लिखा मध्य वर्ग भारत में या विदेशों में योग का अभ्यास करते हैं हालाँकि वे योग की सभी धारणाओं से सहमत नहीं हैं | वो सोचते है की अगर ये सब गलत भी है तो इससे कोई नुक्सान नहीं और अगर सही है तो लाभ | बहुत से कट्टर देशभक्तों को इस बात का गर्व है की योग देश की प्राचीन परंपरा से जुड़ा हुआ है और आज देश विदेश में स्वीकार हों रहा है | बहुत से विश्वविद्यालय, इंस्टिट्यूट , रिसर्च सेंटर , मुख्य रूप से भारत में , योग पे शोध कर रहे हैं | दर्जनों पत्रिकाएँ योग के विभिन्न पहलुओं पर शोध पत्र मुद्रित करने के लिए प्रकाशित हों रही हैं। सैकड़ों वेबसाइट , हजारों पत्रिकाएं , लाखों अनुयायी, करोड़ों डॉलर…..अंततः २१ जून विश्व योग दिवस | दिल्ली के राजपथ से लेकर पेरिस के एइफ्फेल टावर तक योग करते लोग ही लोग ……| यह अविश्वसनीय लग सकता है जब योग की इस छवि के सामने योग को अन्धविश्वास कहा जाये

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आज कल बहुत प्रकार के भारतीय सन्यासी उपलब्ध हैं। कुछ लम्बी दाढ़ी रखते हैं तो कुछ सर तक मुड़ा लेते हैं | एक लगोंट पहनता है और बाघ की खाल पर सोता है तो दूसरा रेशमी वस्त्र पहनता है और रेशमी बिस्तर पर सोता है या कुछ और प्रकार का जो नंगा ज़मीन पर ही सोता है |कुछ सन्यासी हमेशा अपने साथ अपने शिष्यों को लेकर चलते है,शिष्य धूमकेतु की तरह उनके पीछे पीछे चलते हैं तो ऐसे भी सन्यासी हैं जो अकेले ही दुनिया भर का भ्रमण करते है | कुछ मठ तक ही सिमित रहते हैं तो कुछ घर घर घुमते हैं| एक ‘गणेश’ की पूजा करता है तो अन्य ‘दुर्गा’ की पूजा करना पसंद करता है। कुछ मंत्रों के द्वारा रोग का इलाज करने का दावा करते है तो कुछ दवा देकर और कुछ तो सिर्फ़ देख कर ही मर्ज़ दूर हों जाने की बात करते हैं | कुछ सन्यासी औरत की ओर देखते भी नहीं और कुछ, और कही नहीं बस औरत की ओर ही देखते रहते हैं |कुछ सिर्फ दूध और फल खाते हैं तो कुछ मांस और मछली |एक कहता है की उसे वो सब कुछ चाहिए जो उसने माँगा है तो दूसरा, जो माँगा है उससे अधिक पाने की अपेक्षा करता है और तीसरा बिना मांगे सबकुछ पाना चाहता है | लेकिन सबमें एक बात आम है – ‘, “कुछ मिलना चाहिए”| विविधता में यह एकता !!! आधुनिक योग गुरु ,बी के आयंगर के योग से भी आगे चले गए हैं !! उन्होंने योग को एक व्यापार की वस्तु में बदल दिया है । बाबा रामदेव योग के केवल दो भागों – प्राणायाम और आसन- को बेचते हैं वहीँ अमेरिका में काफी प्रचलित योग गुरु विक्रम चौधरी खुद के द्वारा अविष्कृत योग जिसका नाम ‘हॉट योग’ है (जिसे बंद और गरम किये हुए कमरे में किया जाता है )उसकी दुकान चलते हैं; और श्री श्री रविशंकर अपने ही पेटेंट ब्रांडेड प्राणायाम जिसका नाम उन्होंने सुदर्शनक्रिया दिया है उसका प्रचार करते हैं | लेकिन सबमें एक बात आम है – “कुछ मिलना चाहिए”| बिजनेस स्टैंडर्ड (www.business-standard.com) के अनुसार, रामदेव की संपत्ति का मूल्य 1100 करोड़ रुपये है और इसके लिए उनको आयकर भी नहीं देना है क्योंकि इनके सारे संस्थान चैरिटी के अंतर्गत हैं .. स्कॉटलैंड में उन्होंने एक £ 2,000,000 द्वीप ख़रीदा | वह हर दिन सुबह 24 टेलीविजन चैनलों पर दिखाई देते हैं …… साथ ही वह एक टीवी चैनल के मालिक है। 15 साल पहले वह हरिद्वार में आयुर्वेदिक उत्पादों को साइकिल से बेचते थे | श्री श्री रवि शंकर के आर्ट ऑफ़ लिविंग की अमेरिका की शाखा के अनुसार जुलाई २००६ से जून २००७ तक उनकी संपत्ति $ 5,500,000 थी | कोई भी उनकी पूरी संपत्ति के बारे में नहीं जानता जिसमे बैंगलोर की प्रॉपर्टी भी है | भारत में कर की चोरी करना आसान है | प्रसिद्ध अमेरिकी योग गुरू विक्रम चौधरी के कार संग्रह में रानी और बीटल्स द्वारा स्वामित्व वाली कारों सहित 40 रोल रॉयस और बेंटले शामिल हैं | वो कहते हैं की “यह सब बहुत बड़ा है … मैं बहुत पैसे बना रहा हूँ – पता नहीं है ,लाखों डॉलर एक दिन का या 10 करोड़ डॉलर, एक महीने में – कितना, कौन जाने”। वे सिर्फ सांस लेने की क्रिया या कुछ सरल व्यायाम प्रदर्शन या कुछ सर्कस आसनों के द्वारा इतना पैसा बनाते हैं | महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का पहला सिद्धांत है, ‘यम’ यानि उपहार स्वीकार न करना योगी का पहला धर्म है | (संलग्न तस्वीरें देखें) क्या वे महर्षि पतंजलि या स्वामी विवेकानंद की परंपरा का पालन कर रहे हैं? नहीं | यहाँ मामला सिर्फ व्यापर का है |आधुनिक योग की शक्ति किसी योग की परंपरा में या चमत्कारी तरीके से रोगों को ठीक करने में या रहस्यमयी शक्ति से स्वस्थ शरीर पाने में नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ एक चीज़ में है और वो है : पैसा | और पैसे की ताक़त को चुनौती देना आसान नहीं |

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जैसा की हमने शुरू किया था, चलिए फिर से योग के इतिहास पे वापस आते हैं |एशियाई समाज में जिस प्रकार राजा और प्रजा या ऊँची या नीची जाति का बंटवारा है उसके चलते ध्यान करने के लिए जिस मानसिक शांति या आरामदायक परिवेश की आवश्यकता थी वह तो सिर्फ ऊँची जाति या वर्ग के व्यक्ति को ही उपलब्ध हो सकता था| बाकी ज़्यादातर नीचे वर्ग के लोग तो मेहनत मज़दूरी करके पूरे समाज के लिए भोजन और सुविधाएँ पैदा करने में लगे हुए थे | न्यूनतम ख़ाली समय और नागरिक सुविधाओं के चलते इस वर्ग के लोग आनंद प्राप्ति के दुसरे साधनों जैसे की नशीले पौधे का सेवन या शराब जैसी आदतों में लिप्त होते थे | इसके उलट उच्च वर्ग या जाति के लोग जो ध्यान आदि कर सकते थे उन्होंने दूसरी आदतों को गिरी हुई नज़र से देखा और इसलिए शुद्धता , पवित्रता , ज्ञान ,अध्यात्मिकता , इस तरह के शब्द उच्च वर्ग से जुड़ गए और उच्च वर्ग से जुड़े होने के कारण ये गुण अधिक ऊँचे मने गए | बुद्ध और महावीर का जन्म क्षत्रिय परिवार में हुआ था |उन्होंने ध्यान को महत्ता दी |लेकिन जब बौद्ध धर्म पूर्व भारत में प्रचलित हुआ तो वह आम लोगों तक पंहुचा और उन बौद्ध लोगों ने ध्यान करने से ज़्यादा रहस्यमयी प्रथाओं को बढ़ावा दिया| यही वज्रायण बौद्ध के नाम से जाना जाता है |बौद्ध धर्म के भारत में समाप्त हों जाने के बाद और भारत में अपनी सांस्कृतिक आधिपत्य स्थापित करने में ब्राह्मण हिंदू धर्म की जीत के बाद, रहस्यमय गोपनीय प्रथाएँ लंबे समय के लिए निष्क्रिय अवस्था में चली गयीं । इन्हें फिर से जीवन मिला तेरहवीं शताब्दी में हठयोग के नाम से | यह कामोत्तेजक –रहस्यवादी अभ्यास है | तेरहवीं शताब्दी से लेकर अठारवीं शताब्दी का समय हठयोग के लिए स्वर्ण युग था | हठ का अर्थ है बलपूर्वक | यह इस ओर इंगित करता है की किस प्रकार बल पूर्वक आतंरिक सूर्य (ह ) और आतंरिक चन्द्र (ठ ) को एक होना है और यही प्रतीकात्मक रूप से हठ योग का लक्ष्य है| हठयोग में बलपूर्वक नियंत्रण करते हैं| श्वास पर नियंत्रण, अचल आसन, और ध्यान की संयुक्त तकनीकों के माध्यम से स्वाभाविक प्रवृत्ति को उल्टा करना और नियंत्रित करना शामिल है। यह कोशिश उम्र को रोकने और मृत्यु पर विजय पाने के लिए थी | हठयोग चाहता है की मानव शारीर को अमर पात्र में परिवर्तित कर दिया जाये | अपनी इस परिभाषा और विश्वास के साथ उन्होंने ऐसी पद्दतियों का विकास किया जिसपर उन्हें पूरा भरोसा था की वह उन्हें स्वस्थ और अमर बना देगी | बहुत से योगासन के तरीके , प्राणायाम और बहुत से दुसरे गुप्त , रहस्यमयी , कामुक तरीके और विश्वास , भारतीय समाज में इस हठयोग की ही देन हैं | जो सबसे ज़रूरी बात यहाँ समझनी है वो यह की योगासन जिस प्रकार विकसित हुआ उसमे ध्यान के लिए कोई स्थान नहीं था |महर्षि पतंजलि , सनातन हिंदू परंपरा और बौद्ध जैन परंपरा के अनुसार हम जिसे योग समझते हैं वह हठयोग के समय में कुछ और में ही परिवर्तिन हों गया जिसका उद्देश्य मृत्यु पर विजय प्राप्त करना था न की ध्यान करना | प्राचीन समय के शब्द ‘योग’ का इस्तेमाल करते हुए हठयोग को अपनाकर आधुनिक समय में बी एस इयंगर ने दोनों को जोड़ दिया और इस आधुनिक योग को प्राचीन बताया | जो की सच्चाई नहीं थी | आधुनिक योग हठयोग की परंपरा में है | जब हठयोग अपने स्वर्णयुग में था तब ऊँची जाति के ब्राह्मण इसे नीची दृष्टि और घृणा की दृष्टि से देखते थे | हठयोग को नकारते हुए स्वामी विवेकानंद ने अपनी पुस्तक ‘राजयोग’ में लिखा की “ एक बरगद का वृक्ष ५००० साल तक रह सकता है फिर भी वह एक बरगद का वृक्ष है और कुछ नहीं |इसलिए यदि एक मनुष्य बहुत समय तक जीवित रहता है तो वह सिर्फ एक स्वस्थ जानवर है” | योग आसनों का कोई भी सम्बन्ध हिंदुत्व से नहीं है; स्वामी विवेकानंद ने अपने शिष्यों को कहा की वह अध्त्यात्मिक पुरुष बनें न की एक स्वस्थ जानवर | और ये शब्द और कोई नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद ने अपनी पुस्तक राजयोग में कहा की “योगासन /प्राणायाम और कुछ नहीं बस जिमनास्टिक है”|

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‘हठयोग प्रदीपिका’,’शिव सहिंता’ और ‘घेरंड सहिंता’ हठ योग पर प्रामाणिक शास्त्रीय किताबें हैं। पहली दो किताबें २०० रुपये में उपलब्ध हैं और तीसरी लगभग ५०० रुपये में | ये किताबें ज़्यादातर मध्यकाल के समय भारत में संकलित हुईं | किसी भी पढ़े लिखे आदमी के लिए यह समय की बर्बादी होगी की वह पैसे खर्च करके इस तरह की बकवास पढ़े | हालांकि,हमारे पूर्वजों ने इन्ही निरर्थक बातों पर विश्वास किया जब आधुनिक मानव शरीर रचना विज्ञान और मानव शरीर क्रिया विज्ञान का कोई विकास नहीं हुआ था | उससे भी अधिक यह महत्वपूर्ण है की हम उनके उन विश्वासों को समझें क्योंकि बहुत से अन्धविश्वास और रहस्यमयी धार्मिक प्रथाएं जो भारत के गावों में प्रचलित हैं उनकी जड़ इसी हठयोग में है | और सबसे ज़रूरी बात की आधुनिक योग के बहुत से विश्वास और प्रयोग तब ही समझ में आ सकते है जब हम हठयोग के दर्शन को समझें | हठयोग दर्शन की संछिप्त जानकारी आगे दी हुई है | पहली बात जो हठयोग के विश्व दर्शन में कही गयी है वो ये की जो कुछ भी ब्रम्हाण्ड में उपस्थित है वह सबकुछ मानव शारीर में भी उपस्तिथ है | यह ‘ स्थूल जगत –सूक्ष्म जगत’ (MACROCOSM-MICROCOSM) की अवधारणा बहुत से आध्यत्मिक गुरुओं द्वारा आज भी एक महान दर्शन के रूप में प्रस्तुत की जाती है |इस प्रकार ही ‘शिव संहिता’ में मानव शरीर की अवधारणा है कि इस शरीर में मेरु पर्वत (रीढ़ की हड्डी ) सात द्वीपों से घिरा हुआ है ; इसमें नदियाँ , समुद्र , पर्वत और खेत है …इसमें संत और साधू ; सारे तारे और ग्रह हैं | इसमें पवित्र तीर्थ स्थल , धार्मिक स्थल और देवी देवता हैं | सूर्य और चन्द्र जो की सृजन और विनाश के वाहक हैं वो भी शरीर के अन्दर गति करते रहते हैं | दूसरी महत्वपूर्ण अवधारणा थी सूर्य और चन्द्र के बीच का द्वन्द | चन्द्र अमृत की बूँद माना गया | अमृत को दैविक बीज (रेतस – शुक्राणु ) कहा गया | वर्षा और ओस चन्द्रमा से ही आते हैं | (वाह रे ज्ञान !! आज बच्चे भी जानते हैं की वर्षा कहाँ से आती है!! ) जीवन और मृत्यु का चक्र , मौसमों का चक्र ये सब और कुछ नहीं बस चन्द्र और सूर्य के बीच का अंतहीन युद्ध है | ( प्राचीन भारत में भी मौसम विज्ञान काफी विकसित अवस्था में था !!) ग्रीष्म काल में सूर्य आकाश में ऊंचाई पर होता है और हर दिन सभी जीवों का जीवन का रस पीता है (जीवन रस जो चन्द्रमा से मिला हुआ है ) और दूसरे मौसम में चाँद सूर्य से ऊपर होता है और जीवन रस की उतनी वर्षा करता है की सूर्य उसे सुखा नहीं पाता है | (खगोल विज्ञान का विकास देखिए!! )आयुर्वेद में भी शारीरिक संबंधों के लिए ग्रीष्म काल में मनाही और शीतकाल में कोई मनाही नहीं है , यह समझ भी पूर्वजों की इस तरह की गलत समझ का परिणाम है | ग्रीष्म मृत्यु का और शीतकाल जीवन का समय है |महाभारत में भी भीष्म बाणों की शैया पर मृत्यु के लिए उत्तरायण (ग्रीष्म) का इंतज़ार कर रहा था| चाँद से गिरने वाला अमृत जानवरों , सब्ज़ियों और मानव शारीर में अवशोषित होता है | यही रस मानवों और देवों को जीवन प्रदान करता है | यह उस समय की उनकी नासमझी थी की जो भी चीज़ ठंडी है वह चाँद से आती है | चन्द्र के कुछ पर्यायवाची शब्द जैसे की ‘अमृतकरण’, ‘अमृतकिरण’ हमारी भाषा में आज भी हैं, वो विश्व की इसी परिधारणा से आते हैं | हमारी भाषा में ये शब्द हमारे पूर्वजों की ब्रह्माण्ड के बारे में गलत समझ से आये जीवाश्म हैं | शिव संहिता के अनुसार मानव शरीर में रीढ़ की हड्डी के ऊपर चन्द्र है जहाँ से जीवन रस की वर्षा होती है और सूर्य उदर में स्तिथ है , जीवन रस जो की चन्द्र से नीचे उदर की ओर आता है और जो रस भोजन से उदर में आता है उस सब को सूर्य जला देता है | (मानव शरीर के पाचन तंत्र की महान समझ!! ) शीर्षासन की अवधारणा इसी बेवकूफ़ी भरी समझ से पैदा हुई है : अमृत रस जो की उदर में जा के जल कर ख़त्म हों जायेगा उसे सर के बल उल्टा खड़े होकर ख़त्म होने से बचाया जा सकता है , इस प्रकार आप अपनी जीवनकाल की अवधि बढ़ा सकते हैं |(उल्टे सर की उलटी समझ देखिए !!) हठयोगियों का यह विश्व दर्शन अंधकार युग में भारत में बहुत से आम लोगों ने अपनाया और धीरे धीरे उच्च जाति और ब्राह्मण विश्व दर्शन में भी घुस गया | ये सारी समझ ऐसे ही चलती रही जब तक की आधुनिक विज्ञान की शुरुआत नहीं हुई …..हमारे पूर्वजों की अज्ञानता पे हमें दया आती है | आज के वैज्ञानिक युग में कोई भी देश पुरानी अज्ञानता को बढ़ावा नहीं देते | यह दुर्भाग्यपूर्ण है की सांप्रदायिक लोग उस पुराने अज्ञान में विश्वास करने की बात करते हैं …यहाँ तक की दूसरों को भी उस अज्ञानता को मानने को कहते हैं और अगर कोई उसके विरुद्ध बोले तो मरने मारने पर उतारू हों जाते हैं ….

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मृत्यु पर अपने जीत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए; उनके हठयोग में चार बातें थीं : क्रिया , आसन , मुद्रा और प्राणायाम |और षष्ट कर्म (६ शुद्धिकरण ) हैं : धौती ,वस्ती , नेति , त्रारका , नौली , कपालभट्टी | नेति, नाक के पूरे रास्ते को पानी या कपड़े से साफ़ करने की क्रिया है | धौती , कपड़े की पतली बत्ती को मुह के रास्ते घोंट कर पेट को साफ़ करने की क्रिया है |त्रारका , एक बिंदु या आग की लौ को तबतक घूरते रहने की क्रिया है की जबतक आँखों से पानी न आ जाये ;यह आँखों की सफाई का तरीका है !! नौली , पेट की मांसपेशियों को बलपूर्वक मलने की क्रिया है | कपालभट्टी (रामदेव का लोकप्रिय कपालभारती ) नाक के रास्ते सांस को बलपूर्वक निकालने और ऐसा करते हुए पेट की मांसपेशियों को सिकोड़ने की क्रिया है | पुराने समय में जब मानव शरीर के आन्तरिक अंगों और पाचन तंत्र का कोई ज्ञान नहीं था , हमारे पूर्वजों ने सोचा था की हमारे पेट में बैठा सूर्य भोजन के सारे जीवन रस को जला देता है और बाकी पदार्थ मल के रूप में बाहर निकलता है | फिर हठयोगियों ने सोचा की सारी गन्दगी पूरी तरह से साफ़ नहीं होती होगी और इसलिए उन्होंने इस प्रकार के सफाई अभियान मानव शरीर पर किये | यह उनका अज्ञान ही था वरना मानव शारीर को इस प्रकार के सफाई अभियानों की कोई ज़रुरत नहीं है | शरीर अपने आतंरिक भागों की स्वयं ही सफाई करता रहता है , हमें कपड़ा या पानी डाल के रगड़ कर के आतंरिक भागों की सफाई करने की कोई आवश्यकता है ही नहीं | यह जटिल पाचन तंत्र और पाचन अंगों के बारे में उनका अज्ञान भर था | पेट पाचन तंत्र का एक बड़ा भाग है जिसमे जटिल रासायनिक क्रियाओं के बाद, जिसमे हाइड्रो क्लोरिक एसिड और दुसरे एंजाइम जो लीवर और पैंक्रियास से आते है , भोजन फिर छोटी आंत में जाता है जहाँ थोड़ा भोजन अवशोषित होता है फिर वहां से यह बड़ी आंत में जाता है जहाँ बाकी भोजन और पानी अवशोषित होता है (चित्र देखें )| शरीर में रहने वाले दुसरे बैक्टीरिया और जीवाणु बचे हुए पदार्थ को और सड़ाते है और यह शरीर द्वारा रेक्टम में पहुंचा दिया जाता है | तो सारा waste रेक्टम के पास जमा होता है और पेट में सफाई की कोई आवश्यकता नहीं रहती(पेट के एंडोस्कोपी का चित्र देखें ) , मानव शरीर इसे खुद ही कर लेता है | आज के समय में डॉक्टर्स एंडोस्कोपी से पेट के अन्दर की समस्या जैसे अल्सर के लिए देखते हैं | लेकिन इसके अलावा शरीर के बहुत अन्दर तक किसी बाहरी वस्तु को डालना आसन नही और सुरक्षित नहीं | इसलिए और स्टडी के लिए बेरियम एक्स रे या अल्ट्रासाउंड का सहारा लेते हैं | यह हठयोगियों का अज्ञान ही था की कपड़ा घोंट कर पेट की सफाई की जा सकती है या पेट को दबा कर गन्दगी को श्वास के माध्यम से बहार निकाल सकते है (कपालभारती )| शरीर के बाहरी भागों की ज़रूरी सफाई के अलावा और किसी बलपूर्वक आतंरिक सफाई करने यानि आँख, नाक, मुह आदि में कुछ डालकर कुछ करने पर आप बड़ी परेशानी (इन्फेक्शन आदि ) में फंस सकते है| किसी बीमारी के समय डॉक्टर्स मेडिकल तरीके से कुछ भी शरीर में डालते हैं अन्यथा कभी नहीं | धौती और वस्ती से भयंकर इन्फेक्शन हों सकता है जिसमे वस्ती अधिक खतरनाक है | हठयोगियों ने ये सोचा की हर एक नासिका एक अलग श्वास की पाइप है जो रीढ़ की हड्डी से होती हुई नीचे तक जाती है और फिर दूसरी पाइप से जुड़कर दूसरी नासिका में खुलती है | |दायें तरफ की नासिका को ‘इदा’ कहा और बाएं ओर की नासिका को ‘पिंगला’ कहा | उनको लगा की यदि एक नासिका में पानी डालें और दूसरी से बाहर निकालें तो पूरे शरीर की सफाई हों जाएगी(धन्य हो ऐसी अज्ञानता !!) सच्चाई तो यह है की दोनों नासिका नाक के पास ही जुड़ी होती हैं और फिर एक होकर फेफड़े तक जाती हैं | शरीर में बहुत से ऐसे अंग हैं जो श्वास को फ़िल्टर करते है | नाक एक स्थान पर (pharynx) मुह से जुड़ी हुई है| नाक में कुछ भी वस्तु या द्रव्य डालना medical supervision के आलावा , बहुत ही घातक हों सकता है |शिव संहिता के अनुसार ८४ आसन हैं और उसमे से चार को लिया गया | इससे यह पता चलता है की हठयोगियों ने भी आसनों को उतनी महत्ता नहीं दी| शिव संहिता में सिर्फ चार आसन महत्वपूर्ण हैं – सिद्धासन ,पदमासन ,उग्रासन , स्वास्तिकासन | और मुद्राएँ हैं –महामुद्रा , महाबन्ध , महावेध , जलांधर , खेचरी , मुलाबंध , विपरीतकरणी , उध्धाना ,वज्रोंदी और शक्तिचालन | हठयोग प्रदीपिका कहती है की आसनों का उदेश्य संतुलित ,स्वस्थ और हल्का शरीर प्राप्त करना है | पतंजलि योग के अनुसार आसनों का ध्यान (मैडिटेशन ) से कोई सम्बन्ध नहीं है आसन सिर्फ एक संतुलित बैठने की अवस्था है ध्यान के समय | हठयोग में अब हम ये समझ सकते हैं की सिर्फ आसन ही हैं , ‘ध्यान करना’ नहीं | हठयोग प्रदीपिका में केवल १५ आसन बताये गए हैं – स्वास्तिकासन , गोमुख आसन , वीरासन , कुर्मासन , कुक्कुट आसन , उतानासन , कुर्म आसन , धनुर आसन , मत्स्य आसन, पश्चिमताना आसन , मयूर आसन , शव आसन , पदमासन ,सिंह आसन , और भद्र आसन | और १० मुद्राएँ हैं जो मृत्यु व उम्र पर विजय प्राप्त करने के लिए है – महामुद्रा , महाबन्ध , महावेद ,खेचरी , उद्दियाँ बंध , मुला बंध ,जलंधरा बंध , विपरीत करणी , विज्रोली और शक्ति चालन |

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हठयोग प्रदीपिका कहती है की : सूर्य नाभि के ऊपर और चन्द्र तालू के नीचे है | विपरीत करणी को गुरु से सीखना होता है | विपरीत करणी करने पर अधिक भूख लगती है इसलिए जो भी इसको करता है उसे अच्छे भोजन की आवश्यकता होती है | अगर भोजन कम हुआ तो यह क्रिया आपको जला सकती है | सिर को नीचे ज़मीन पे रख के पैर उपर आसमान की तरफ करना होगा | पहले दिन सिर्फ एक क्षण के लिए | धीरे धीरे ये समय बढ़ाना होगा  छह महीने के बाद त्वचा की झुर्रियां और सफ़ेद बाल पूरी तरह से ख़त्म | अगर आप इसे बस दो घंटों के लिए रोज़ करें तो मृत्यु पर विजय पा सकते हैं – ‘हठयोग प्रदीपिका’ में वर्णित | हठयोग के दर्शन के अनुसार विपरीत करणी करने पर अधिक भूख लगने का सीधा सा कारण है ; क्योंकि सूर्य पेट में होता है और चन्द्र जो तालू में है उसके जीवन रस को बचाने लिए आप सिर के बल खड़े हो हो कर चन्द्र के रस को पेट में जाने से रोक रहे हैं ,ताकि ज़्यादा से ज़्यादा जीवन रस (उम्र ) बचे (इसी प्रकार रस बचाते बचाते अमरता प्राप्त की जा सकती है ) तो इस क्रिया में सूर्य पेट को और जला रहा है क्योंकि उसको चन्द्र का जीवन रस तो नहीं मिल रहा है इसलिए ये क्रिया करने पर अधिक भोजन की आवश्कयता होगी नहीं तो सूर्य पेट को जला देगा | (बताइए ! सिर नीचे और पैर ऊपर करके अमर हो सकते तो हमें लगता है की अब तक पैर हमारे प्रयोग से बहार होते और हम सिर के बल ही चल रहे होते ; अमर कौन नहीं होना चाहता भाई !!) तो ,विपरीत करणी और इसके दुसरे प्रकार बाज़ार में बहुत से रोगों का इलाज करने के लिए बेचे जाते हैं जैसे कब्ज़ , पाइल्स , हर्निया , मासिक धर्म से सम्बंधित समस्याएं , बाँझपन वैगेरह वैगेरह | Yoga Quarterly Review.T No. 3, PP 7-17, The Yoga Review, Summer 1982, 2(2): 79-87( ये योग से सम्बंधित पत्रिकाएं हैं जो योग के मानव शरीर पे होने वाले प्रभावों पर शोध करती है ) के द्वारा एक शोध पत्र में कहा गया – विपरीत करणी मुद्रा : एक स्पष्टीकरण “ सिर के बल खड़े होने का बहुत बड़ा प्रभाव ग्रंथियों पर पड़ता है और भारी मात्रा में जीव उर्जा पैदा होती है और मानव व्यक्तित्व में बहुत परिवर्तन आता है” | एक आम इन्सान को ये शब्द सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं | वह प्रभावित होता है | लेकिन सोच के देखें तो मानव व्यक्तित्व का परिवर्तन मतलब क्या ? इस परिवर्तन को मापने का आधार क्या है ?ये सारी बातें कहने के लिए क्या प्रयोग किये गए और उसके परिणाम का अध्ययन क्या था ? यह जीव उर्जा क्या है ? उसकी परिभाषा ? जीव वैज्ञानिक या भौतिक वैज्ञानिकों को ऐसी किसी उर्जा का कुछ पता नहीं | इस सब के बारे में कोई जानकारी जर्नल में नहीं है | किसी वैज्ञानिक जर्नल में प्रयोग की विधि और परिणामों का पूरा डेटा प्रकाशित होता है , हर एक अनुमान के साथ | लेकिन योग के जर्नल्स में ऐसा पूरा विवरण नहीं दिखाते | ये है सच्चाई योग जर्नल्स की | जब किसी ज्ञान का कोई ठोस आधार नहीं होता है तो सिर्फ इस तरह के शब्द ही रहते हैं बस | योग करोड़ों रुपये का व्यापार है जिसमे शोध संस्थान , पत्रिकाएं , रेफेरेंस किताबें , पुस्तकालय , वेब साइट्स …और उसके साथ साथ योग गुरु लोग भी हैं | इयांगर अपनी पुस्तक ‘लाइट ऑन योगा’ में कहते हैं की शीर्षासन सारे आसनों का राजा है और यह झूठा दावा करते हैं की यह वेदों में लिखित है; ऐसा उन्होंने हिंदू धार्मिक लोगों के मन में अपनी गलत बातों के लिए भी जगह बनाने के लिए झूठ बोला | सच्चाई यह है की शीर्षासन , विपरीत करणी जो की हठ योगियों द्वारा बनाया गया था ,उसका ही एक बिगड़ा हुआ रूप है | इयांगर कहते हैं की “ रोज़ शीर्षासन करने पर मस्तिष्क में स्वस्थ रक्त का प्रवाह होता है | इससे मस्तिष्क स्वस्थ होता है और सोचने की क्षमता बढती है | जिन लोगों का मस्तिष्क जल्दी थक जाता है उन लोगों के लिए तो यह टॉनिक है | इससे pituitary and pineal glands में रक्त का प्रवाह अच्छा होता है और हमारा स्वास्थ्य इन्ही ग्लैंड्स के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है|” कहीं से उन्होंने कुछ ग्लैंड्स का नाम सुना और बिना उसके काम और उसकी जटिल कार्य प्रणाली को जाने बिना बड़े बड़े दावे कर डाले, जो न तो वेदों में लिखे थे और न ही हठयोग की किताबों में ; और वैज्ञानिक समझ से बिलकुल गलत थे | तथ्य यह है की बहुत अधिक रक्त का प्रवाह मस्तिष्क में intracranial pressure (ICP) को बढ़ा देता है और जिसकी वजह से संवेदनशील कोशिकाएं दब सकती हैं और permanent brain damage हो सकता है | इसे Hyperemia कहते हैं | यह मस्तिष्क की कार्य प्रणाली में कमी की वजह से होता है| दूसरी तरफ , मस्तिष्क में रक्त प्रवाह की कमी होने से भी कोशिकाओं को ऑक्सीजन कम मिलता है और ब्रेन कोशिकाएं मर जाती है | इसे Ischemia कहते हैं | मस्तिष्क में रक्त का प्रवाह मानव शरीर की प्राकृतिक कार्य प्रणाली के अंतर्गत होता है | यह जटिल जैव तंत्र है | ऐसा सोचना की सीधा खड़ा रहने पे कम रक्त या सिर के बल खड़ा होने पे मस्तिष्क में अधिक रक्त प्रवाह होगा , बिलकुल बेवकूफ़ी है | शरीर अपने सारे फंक्शन्स खुद नियंत्रित करता है और हमारे उछल कूद मचाने से नहीं बदलता | यह पाइप में पानी बहाने जैसी साधारण बात नहीं है , जैसा की इयांगर जी ने सोचा | फिर भी शीर्षासन की वजह से रीढ़ की हड्डी और गर्दन की हड्डी में नुक्सान पहुँच सकता है | इसे आगे की पोस्ट में विस्तार से देखेंगे | हठयोगियों को तो शरीर का कोई ज्ञान नहीं था इसलिए उन्होंने बहुत सी गलत बातों में विश्वास किया लेकिन आधुनिक समय में आज के योग गुरु इन सारे योग की व्यर्थता को अच्छी तरह जानते हैं लेकिन वे अपने फ़ायेदे के लिए लोगों को धोखा दे रहें हैं | हमारे पूर्वज अज्ञानी थे लेकिन आज के योग गुरुओं की तरह धोखेबाज़ नहीं |

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हठयोग प्रदीपिका प्राणायाम के बारे में बताती है की “जब तक शरीर में वायु है तब तक हम जीवित हैं | जब हम मरते हैं तो यह वायु बाहर चली जाती है| इस प्रकार वायु ही जीवन है | इसलिए हमें सांस को जितना देर हो सके रोक के रखना चाहिए ताकि वायु ,जो की जीवन है, हमारे अन्दर रहे | ऐसा करने की पद्धति को प्राणायाम कहते हैं | वायु जो नाक के छिद्रों में प्रवेश करती है नीचे जा कर शुश्मना( चित्र देखें ) से मिलती है जहाँ से जीवन वायु ऊपर उठती है |लेकिन नाड़ी (इडा और पिंगला )और शुश्मना में गन्दगी भरी होती है इसलिए जीवन का संचार शरीर में बाधित होता है| प्राणायाम इन्ही गन्दगी को साफ़ करके मुक्त जीवन संचार करता है और इस प्रकार आपको लम्बा जीवन देता है | शिव संहिता में इसे करने की विधि दी गई है , “ इसको करने वाला प्रबुद्ध मानव अपने दायें अंगूठे से अपनी दायीं नाक को बंद करे और बायीं नाक से सांस ले और दायीं नाक से सांस छोड़े | बाद में इसका उल्टा करे |”….हम सब ये तमाशा रोज़ टीवी पे बाबा रामदेव को करते हुए देखते हैं | श्वास तंत्र की ये महान समझ !! अठारवीं शताब्दी की दूसरी अर्धशती में , तीन वैज्ञानिकों Carl Wilhelm Scheele, Joseph Priestly, and Antoine Lavoisier ने प्रोयोगों द्वारा पता लगाया की ऑक्सीजन नामक गैस हवा में होती है | और फिर से दो शताब्दी के बाद पूरी तरह से समझा जा सका की ऑक्सीजन का मानव शरीर में क्या महत्व है और यह शरीर की जटिल क्रिया से कैसे जुड़ा हुआ है | कुछ अधकचरी जानकारी से की मरने पर मनुष्य सांस नहीं लेता है , हठ योगियों ने सोचा की यदि हम इस सांस को रोक के शरीर में जमा कर लें तो हम ज़्यादा जीवन अपने अन्दर बचा लेंगे | जीवन एक जटिल जैव प्रक्रिया है और मृत्यु सिर्फ सांस का रुक जाना नहीं | आज के जीव विज्ञान से हम मृत्यु को बेहतर जानते हैं | हम जो सांस लेते हैं वो शुश्मना में नहीं बल्कि फेफड़े में जाती है | वायु का बड़ा हिस्सा हमारे लिए ज़रूरी नहीं, सिर्फ ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है | वायु में ऑक्सीजन सिर्फ २०.९५ % है , ७८.०९ % नाइट्रोजन और बाकी दूसरी गैस हैं| सांस लेने पर दूसरी गैस और कार्बन डाइऑक्साइड को बाहर निकलना होता है |यह शरीर की साधारण क्रिया है | हमें ज़बरदस्ती सांस को रोक कर या अधिक सांस अन्दर खींच कर ऑक्सीजन रोक कर रखने या ज़्यादा ऑक्सीजन अन्दर भर लेने की कोई ज़रुरत नहीं है; सांस लेने की क्रिया शरीर द्वारा स्वनियंत्रित होती है और रक्त में कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर पर निर्भर करती है (चित्र देखें )| मानव जाति अपनी उत्पत्ति के २००००० वर्षों से बिना किसी सांस की कसरत के ज़िन्दा है | ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ में जाकर और पैसे देकर , सांस कैसे लेते हैं यह सीखने की कोई ज़रुरत नहीं है या इसके लिए रामदेव का टीवी प्रोग्राम देखने की भी ज़रुरत नहीं | श्वास एक प्राकृतिक क्रिया है | यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है की आज के योग गुरुओं द्वारा प्राणायाम को उच्च रक्तचाप , हृदय रोग ,आर्थराइटिस , पार्किन्सन( मस्तिष्क का एक रोग जो की तंत्रिका तंत्र के ख़राब होने से होता है और श्वास के किसी सर्कस से ठीक नहीं हो सकता जैसा की रामदेव दावा करते हैं ), लकवा जैसी बिमारियों का इलाज बताया जा रहा है | यह सब ‘नाड़ी’ जैसी एक अवधारणा और उसको साफ़ रखने से शुरू हुआ जबकि नाड़ी जैसी चीज़ का मानव शरीर में कोई अस्तित्व ही नहीं है| जब नाड़ी ही नहीं है तो साफ़ किसको करना है ? मानव शरीर क्रिया विज्ञान की पूरी तरह से अज्ञानता के बावजूद रामदेव कुछ कुछ बातें बनाकर लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं ….योग, ऐसे योग गुरुओं के पैसे के लोभ और लोगों की मानव शरीर क्रिया विज्ञान की अज्ञानता पर फल फूल रहा है …

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खेचरी मुद्रा को समझने के लिए ऐसा सोच सकते है की जीभ जहाँ जुड़ी हुई होती है (frenulum) अगर उसे काट दिया जाये तो वह मुक्त हो जाती है और उसे खींच कर ऊपर आँख की भौहों तक भी ले जा सकते हैं | एक धारदार पत्ती से एक बार में एक बाल के बराबर की मोटाई जितना frenulum को काटा जाता है | इस प्रकार थोडा थोडा काटते हुए कुछ साल में जीभ पूरी तरह अलग हो जाती है और योगी अपनी जीभ को बहुत बाहर तक निकाल सकता है या फिर उसको बहुत अन्दर गले तक डाल सकता है | इसका उद्देश्य सांस की गति को रोककर कुंडली को जागृत करना है | इससे वह जीवन रस जो नीच की तरफ जाता है उसको भी रोक सकता है और स्वयं उसे खा जाता है ताकि पेट में बैठा सूर्य उसे जला न दे | अब ये न पूछियेगा की बिना पेट तक पहुंचाए वह रस को कैसे खाता है | यह बहुत ही ख़तरनाक तकनीक है और इसमें बहुत से योगी मर गए | आज भी मेडिकल साइंस में यह बहुत बड़ा चैलेंज है की जब अनेस्थेसिया (anesthesia) दिया जाता है तो यह डर हमेशा बना रहता है की अचेत अवस्था में कहीं व्यक्ति की जीभ अन्दर घूम कर सांस लेने के रास्ते को रोक न दे , अगर ऐसा हुआ तो व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है | तो फिर सोचिये की खेचरी मुद्रा कितनी खतरनाक है | जलांधर मुद्रा का उद्देश्य भी वही है जो खेचरी मुद्रा का है यानि रस को शरीर में ऊपर सिर से नीचे पेट में जाने से रोकना और उसे खुद ही खा लेना जिससे सूर्य उसे न खा पाए |योगी अपनी ठोड़ी को बलपूर्वक गले में दबाता है | ये मुद्राएँ एक अजीब प्रकार के मनोभाव पैदा करती हैं | योगी मानते हैं की ऐसा करने से उनका शरीर शुद्ध हो रहा है और अधिक अमृत रस शरीर में जमा हो रहा है या कुंडली जागृत हो रही है | वो ख़ुश होते हैं की वो अधिक जी सकते हैं | ऐसा ही कुछ एहसास प्राणायाम करने पर भी होता है लेकिन ये मुद्राएँ (जलांधर , खेचरी ) अधिक प्रभावी हैं | उन्हें ऐसी अनुभूतियाँ क्यों हों रही थीं ? ऐसा नहीं है की वो झूठ बोल रहे थे बल्कि उन्हें सचमुच ही ऐसे अनुभव हो रहे थे | इन अनुभूतियों का कारण क्या था ? बहुत से वैज्ञानिक शोध हुए इसको समझने के लिए | ये अनुभूतियाँ श्वास को नियंत्रण करने के समय रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा कम हों जाने की वजह से होती हैं | अनुपात में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ जाती है और रासायनिक क्रिया बदल जाती है जिसकी वजह से शरीर हल्का महसूस होता है और कुछ चमत्कारी अनुभूति होती है| लेकिन यह स्वास्थ्य के लिए बिलकुल भी ठीक नहीं| जैसे की गांजा पीने पर कुछ ऐसी ही अनुभूति होती है लेकिन गांजा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है | (इसपर विस्तार बाद में ) | बहुत से लोग बहुत ढंग से आनंद प्राप्त करते है जैसा की पहली पोस्ट में कहा गया लेकिन हमारे पास आज अधिक स्वस्थ और सुरक्षित तरीके हैं ; नृत्य , संगीत , साहित्य इसी दिशा में काम करते हैं | आनंद प्राप्ति के इन रूपों के लिए हमें एक दृष्टि पैदा करनी होती है| दूसरा वह असभ्य और ख़तरनाक तरीका है जो की १५ शताब्दी में हठयोगियों ने अपनाया | यहाँ पर ये बता दें की दो और हठ योग का प्रचलित अभ्यास है – वज्रोली मुद्रा और शक्तिचालन | जिसका हमने वर्णन नहीं किया है क्योंकि ये ऐसे अभ्यास हैं की उनके बारे में पढ़ कर घृणा होती है ; मेरे लिए इतना घृणित वर्णन करना मुश्किल था | यदि आप उनके बारे में जानना चाहते हैं तो ‘शिव संहिता’ में पढ़ सकते हैं | योग के पहले चरण के इतिहास में हम समझ सकते हैं की योग आसन का महत्व इतना भर था की ध्यान करने के समय शरीर एक आरामदायक और संतुलित अवस्था में हो| वेदों या बुद्ध या जैन साहित्य में भी इसको कोई महत्ता नहीं दी गयी| स्वामी विवेकानंद ने भी योग के बदलते स्वरुप को नाकारा |यह योग के इतिहास का प्रथम चरण था | योग के इतिहास का दूसरा चरण मध्यकालीन भारत में शुरू होता है जब हठयोगियों ने योग आसन को मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का साधन समझा और हमेशा स्वस्थ रहने का माध्यम समझा | उन्होंने दुसरे और भी अभ्यास शुरू किये जैसे की प्राणायाम या जल नेति जिनको करने का उद्देश्य वही था | इस तरह के बकवास के प्रयोग ,मध्यकाल में पूरे विश्व में हुए , उदाहरण के लिए अरबों ने यह विश्वास किया की कुछ रासायनिक प्रोयोगों के द्वारा किसी भी धातु को सोने में बदला जा सकता है | बहुतों ने अपना पूरा जीवन इसमें लगा दिया जिसे की alchemy के नाम से जानते हैं | जब आधुनिक रसायन विज्ञान का विकास हुआ और धातु को समझा गया तो alchemy पूरी तरह से इतिहास की वस्तु बन गया जिसके लिए आज के ज्ञान में कोई जगह नहीं थी | हठ योगी मानव शरीर की अज्ञानता की वजह से वो सब कुछ कर रहे थे लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है की योग इतिहास की वस्तु होने की बजाय अपने अगले चरण में आ गया है | इस तीसरे चरण में योग एक स्टेज शो हो गया और ब्रिटिश काल में पूरे विश्व में होने वाली सर्कस तकनीक से नक़ल कर के विकसित हुआ |

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हठ योगियों का समूह वो पहला धार्मिक समूह था जिसने अपनी फ़ौज बनायी | वो बहुत ही शक्तिशाली और प्रभावशाली थे , मध्य काल के अलौकिक दलाल थे जो राजाओं को बनाने और गिराने की शक्ति रखते थे | वो मुग़ल काल में मुग़ल राज्यों में भी शक्तिशाली थे | १५ वीं शताब्दी से १९ वीं शताब्दी के शुरू के दशकों तक योगियों की ये फ़ौज जो की हठ योग करती थी जैसे की नाग सन्यासी , उन्होंने उत्तर भारत के व्यापार मार्ग को अपने नियंत्रण में रखा | वे व्यापार को अपने नियंत्रण में रखने वाले सैनिक जैसे थे | डकैती और व्यापार मार्ग पर आने जाने वाले लोगों से कर (tax) लेकर उन्होंने बहुत पैसा इक्कठा किया |वो अपने चारो तरफ एक रहस्यमयी माहौल बना के रखते थे जिससे की लोगों को लगता था की उनके पास अलौकिक या चमत्कारी शक्तियां हैं | ऐसा भी माना गया की वो बच्चों को अगवा कर लेते थे ताकि अपनी फ़ौज बढ़ा सकें | लोग उन्हें डर और भक्ति की नज़र से देखते थे | लेकिन उनका बुरा समय शुरू हुआ जब अंग्रेजों ने अपना व्यापार भारत में शुरू किया | ये सन्यासी उत्तर भारत से बंगाल के कई भागों की यात्रा तीर्थ स्थानों पे जाने के लिए करते थे , और रास्ते में ज़मींदारों या ऐसे लोगों से ज़बरदस्ती धार्मिक कर वसूल करते थे | हठ योगी इतने शक्तिशाली थे की जमींदार या स्थानीय नेता उन्हें कुछ नहीं कह सकते थे | लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभाव बढ़ने पर , ज़मींदारों को ‘दीवानी’ मिली यानी कर वसूल करने का अधिकार | अब गाँव वालों के लिए दो शोषक थे , एक अँगरेज़ और दुसरे हठ योगी | अच्छी फ़सल के समय में जमींदार दोनों को संतुष्ट रखते थे लेकिन अकाल पड़ने के समय नहीं | यह स्पष्ट है की हफ़्ता वसूली के इस खेल में कंपनी को हठ योगियों की वजह से नुकसान हो रहा था| जब कम्पनी ने योगियों को प्रदेशों में घुसने या पैसा वसूलने से रोका तो बहुत बार बड़े टकराव हुए | १७७० के बंगाल में हुई भुखमरी के समय ज़मींदार कर देने की हालत में नहीं थे | क्रोध में ब्रिटिश ने १५० सन्यासियों को मार डाला | इसकी वजह से नातोरे ज़िला (अभी बांग्लादेश) में दंगा हुआ | सन्यासी विद्रोहियों की कहानी बंगाल के महान लेखक बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय (१८३८ -१८९४ ) ने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में लिखकर उन्हें स्मृतियों में अमर कर दिया | ‘वन्दे मातरम’ गीत जो की इस उपन्यास में था बाद में भारत का राष्ट्र गीत बना |

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१७७३ में बंगाल के पहले गवर्नर जनरल Warren Hastings ने हठ योगियों के बंगाल में घूमने पर रोक लगा दी | अंग्रेजों की सत्ता के विस्तार के साथ , १९ वीं शताब्दी से अंग्रेजी ताक़त द्वारा ज़बरदस्त कठोर नीतियां इन सन्यासी व्यापार सैनिकों पर लगायी गयीं | इनकी फ़ौज की ताक़त को तोडा गया , उनके हथियार ले लिए गए और उन्हें शहरों और गावों में बसने पर मजबूर किया गया | नंगा घूमना और हथियार रखना अपराध माना गया | योगियों ने अपनी पुरानी सत्ता खो दी जो मध्ययुग में उनके पास थी| बाद में ऐसा ही कुछ दुसरे गवर्नर जनरल William Bentinck ने एक दूसरी घिनौनी प्रथा को ख़त्म करके किया और वह प्रथा थी – सती |उन्होंने बहुविवाह प्रथा , बाल विवाह आदि भी रोकने की कोशिश आधुनिक भारत के निर्माता राजा राम मोहन रॉय की मदद से की | भारत में सांप्रदायिक ताक़तें मध्ययुग के विश्वासों और प्रथाओं को नया जीवन देने की भरपूर कोशिश कर रही हैं |योग के क्षेत्र में वे सफल हुए हैं | अभी देर नहीं हुई है वे ‘सती’ भी वापस ला सकते हैं | उस समय इसकी आलोचना करने वालों को ये देशद्रोही कहेंगें और स्वयं को पक्का देशभक्त | आगे चलते हैं ; तो तीन शताब्दियों से अधिक समय से चलने वाली हठ योग की परंपरा को जनरल Warren Hastings ने कठोरता के साथ ख़त्म कर दिया| योगी जो धनी ,व्यापार मार्ग के सैनिक थे वो अब ऐसे कंगाल हो गए की उनमे से बहुतों को अब जीवन यापन के लिए योग का तमाशा दिखाने वाला मदारी जैसा बनाना पड़ा | उनकी सत्ता में ये अचानक गिरावट और कंगाली का प्रभाव अलग अलग हठ योगियों पर अलग अलग था | १८९७ में , योगी बाबा लक्ष्मण दास लंदन पहुंचे और अपने ४८ आसनों का एक शो लंदन के Westminister Aquarium के sideshow में दिखाया | यह आसनों का ,जो की योग कहा गया, विदेश में पहला प्रदर्शन था | हठ योग के अभ्यास जो उनके लिए मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का तरीका था ,उसे उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए मनोरंजन का साधन बनाया | बहुत से लंदनवासियों को यह याद है की बाबा लक्ष्मण दास ध्यान करने की बजाय शाम में अपने मिले हुए पैसे गिनते रहते थे | पैसे के लिए योग एक नट क्रिया (acrobat) में बदल दिया गया| अबतक जिन योगियों से लोग उनकी अलौकिक शक्तियों की वजह से भारत और ब्रिटेन में , डरते थे , अब उन्ही की आँखों में रास्ते के भीख मांगने वाले बन गए थे जो आसन दिखा कर पैसे कमाते थे | यूरोपीय पहले से इस तरह के पब्लिक शो को जानते थे क्योंकि उनके अपने देशों में बहुत से लोग पैसे ऐंठने के लिए ऐसे shows करते थे | पेशेवर नट, मेलों या राज दरबारों में अपनी कलाबाज़ियां दिखाते थे | प्रसिद्ध अंग्रेजी सर्कस मास्टर जोसफ क्लार्क और ‘मास्टर फॉक्स’ कम्पनी के कर्मचारी पिछले सौ साल से यूरोपीय और अंग्रेजी लोगों का मनोरंजन करते आ रहे थे | योग हंसी का पात्र बन गया और उसका ब्रिटेन में मज़ाक उड़ाया गया | इन्ही परिस्थितियों में स्वामी विवेकानंद हिंदू धर्म की रक्षा के लिए आगे आये और कहा की हठ योगियों का हिंदू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है|

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घुड़सवारी के कलाबाज़ , एक्रोबट्स , विदूषक , प्रशिक्षित जानवर और दुसरे सर्कस के जाने माने अंगों का हमेशा से ही इतिहास में वर्णन रहा है | फिर भी, १७६८ में Philip Astley ने पहला मॉडर्न सर्कस लन्दन में किया जिसमे ‘Astley’s Amphitheatre’ के नाम से एक रिंग में घुड़सवारी तेज़ दौड़ते हुए घोड़े के सिर पर सिर्फ एक पैर पर खड़े होकर की | उन्होंने १८ सर्कस कंपनी पूरे यूरोप में बनायी | १७८२ में उनके प्रतिद्वंदियों ने ‘Royal Circus’ बनाया | John Bill Ricketts ने अमेरिका का पहला सर्कस १७९२ में Philadelphia में और बाद में Yew york और बोस्टन में शुरू किया | १८२० तक बहुत सी सर्कस कम्पनी थीं जिनके पास बड़े टेंट थे और वे गाँव और शहरों में जाते थे | १८५९ में, Jules Leotard ने पहली बार ‘flying trapeze’ (फ़ोटो देखिये) पेरिस में दिखाया | यह आज भी सर्कस का महत्वपूर्ण अंग है | Barnum & Bailey सबसे बड़ी सर्कस कंपनी थी जिसके पास सैकड़ों टेंट और कर्मचारियों और कलाबाजों की फ़ौज थी| १८९७ में जब योगी बाबा लक्ष्मण दास लंदन पहुंचे , सर्कस पहले से ही पश्चिमी देशों में एक लोकप्रिय शो था | योगी के आसन निसंदेह सर्कस में होने वाली कलाबाजियों के सामने कुछ भी नहीं थे | यही वजह है की पश्चिमी लोगों ने योगियों को गिरी हुई नज़र से देखा | पुट्टपर्थी सत्यसाई बाबा अपने अमीर और प्रसिद्ध भक्तों को प्रसाद में सोने की माला बस हवा में हाथ घुमा के देते थे |भारत के प्रसिद्ध जादूगर पी सी सरकार जिन्होंने १९९२ में चलती हुई ट्रेन गायब कर दी थी और २००० में ताजमहल गायब कर के दिखाया था ; उन्होंने एक बार कहा की “साईं बाबा भगवान हैं की नहीं इस पर मैं कुछ नहीं कहना चाहता लेकिन एक बात ज़रूर कहूँगा की साईं बाबा का जादू दिखाने में प्रशिक्षण अच्छा नहीं है और जादू दिखाने में वे भारत के सड़क पे जादू दिखाने वाले जादूगरों से भी गए गुज़रे हैं|” बस कुछ ऐसी ही भावना अंग्रेजी लोगों की थी जब उन्होंने बाबा लक्ष्मण दास की कलाबाजी की सर्कस से तुलना की | बाद में Oriental studies( वेदों और पुराणों का अनुवाद )शुरू हुईं और बाद में काफी प्रचलित हुईं |तबतक पश्चिमी लोग योग और संस्कृत लिपि के बारे में और भारतीय सभ्यता तथा समाज के बारे में नहीं जानते थे और ऐसा मानते थे की भारत एक अध्यात्मिक देश है और योगियों के पास अलौकिक रहस्यमयी शक्तियां हैं | लक्ष्मण दास के योग आसनों के प्रदर्शन को देख कर उन्होंने समझा की ये तो कुछ भी नहीं और योग का मज़ाक उड़ाने लगे | पश्चिमी लोगों के लिए “भारत, प्रेमकथाओं , अनोखे लोगों , सुन्दर परिदृश्य , अनूठे अनुभवों …सपेरों और नट का खेल दिखाने वालों की धरती …मूर्तिपूजकों और नंगे रहस्यमयी साधुओं ….महाराजाओं और उनकी रंगीन ज़िन्दगी , रंगीले उत्सवों… का देश है|” बहुत से भारतीय नेताओं , जैसे की सुभाष चन्द्र बोस ने कोशिश की कि भारत के बारे में ऐसी समझ को बदला जाये और भारतीय इतिहास की वस्तुपरक समझ दी जा सके , इसके लिए उन्होंने किताबें लिखीं | (सुभाष चन्द्र बोस की किताब ‘Ideas of a Nation’ और उनकी दूसरी किताबें देखें )| इससे यथार्थ सामने आया लेकिन यह जानकारी ज़्यादातर प्रशासकों और शोध करने वालों तक सिमित रही | बहुत से पश्चिमी लोग अब भी योगियों की रहस्यमयी शक्तियों में विश्वास करते हैं | दुर्भाग्य से बहुत से पढ़े लिखे, मध्यवर्गी भारत में पले बढ़े लोग भी अन्धविश्वासी हैं |भारतीय योग गुरुओं की अमेरिका और यूरोप में मांग का मूलभूत कारण भारत के बारे में पश्चिमी लोगों की यह ग़लत समझ ही है | योग से एक फायदा अप्रवासी भारतियों को ज़रूर हुआ है की योग सेंटर खोल कर वे पैसे कमा सकते हैं |

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अगर १९ वीं शताब्दी के शुरुआत और मध्य का समय सर्कस का था जब आधुनिक सर्कस के तरीके इजाद हुए तो शताब्दी के अंत और २० वीं शताब्दी के शुरुआत का समय शारीरिक व्यायाम का था | Eugen Sandow (1867-1925), जर्मनी के पहले बॉडी बिल्डर (body builder) थे जिन्हें “Father of modern body building’ के नाम से जानते हैं | उस युग में, गठीला शरीर बनाने की एक परंपरा ही चल पड़ी और उसके अध्येता sandow उस परंपरा के प्रतिरूप (icon) बन गए | एक छोटी पिन से लेकर कोल्ड ड्रिंक तक के प्रचार के लिए उनका फ़ोटो छपा होता था | बलिष्ठ शरीर और व्यायाम बद्धता की एक अभूतपूर्व जिज्ञासा ने पूरे ब्रिटेन और यूरोप को अपनी लहर में ले लिया था | यही समय विश्व में उपनिवेशवाद का भी समय था | साम्राज्यवादी समझ के अनुसार उपनिवेशी लोग जिसमे भारतीय भी शामिल थे , वो यूरोपीय लोगों से शारीरिक तौर पर निम्न थे | Baden Powell जिन्होंने International Scout movement की नींव रखी , ये माना की उन्हें शारीरिक, क्षमता और फूर्ती के स्तर पर औपनिवेशिक लोगों को विकसित करना है, जो इन मामलों में निम्नतर हैं | गाँधी जी ने भी अपने मांस खाने की बात कही है जब उन्होंने सुना की भारतीय लोग शारीरिक तौर पर कमज़ोर हैं क्योंकि वे शाकाहारी हैं और ब्रिटिश स्वस्थ हैं क्योंकि वे मांसाहारी हैं | यह दर्शाता है की कैसे इस प्रकार के कथन ने औपनिवेशिक लोगों को प्रभावित किया और उनमे हीनता की भावना पैदा की | बॉडी बिल्डर sandow अपने पूरी दुनिया के दौरे के समय अपनी बॉडी बिल्डिंग के तरीकों का प्रचार करने के लिए भारत भी आये | यूरोपियों से अधिक बलिष्ठ और सुन्दर शरीर पाने का sandow का वादा, जिसे उनके व्यायाम के तरीके और tools अपनाकर पाया जा सकता था , इस बात ने भारतीयों को प्रभावित किया जिनमे अपने शारीरिक क्षमता के बारे में हीन भावना थी | उनके बॉडी बिल्डिंग के तरीके स्वतंत्रता पाने के साधन के रूप में बदल दिए गए | इसे दो तरीके से देख सकते है , एक तो यह लोगों के शारीरिक क्षमता के औपनिवेशिक व्याख्यानों का खंडन था और दूसरा इसने हिंसात्मक प्रतिरोधों ( violent, forcible resistance) को भी सहारा दिया | भारत में जगह जगह अखाड़े बनने लगे | हम ये भी जानते हैं की अखाड़े वो जगह थे जहाँ बहुत से क्रन्तिकारी गुट मिलते थे जैसे की बंगाल के अनुशीलन समिति और जुगांतर| sandow भारतीय युवाओं में एक icon बन गए और उनके तरीके स्वंत्रता के मन्त्र | अनुशीलन समिति के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने बाद में चल कर RSP –Revolutionary Socialist Party बनायी | sandow के पुणे (महाराष्ट्र)के एक अंधभक्त ने ‘सूर्यनमस्कार’ नाम के एक व्यायाम को बनाया

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Sandow की लहर जो चली उसने भारत को काफी प्रभावित किया |बहुत से बॉडी बिल्डर भारत में उभर के आये | भारतीय पहलवान (wrestler) गुलाम मोहम्मद (१८८२ – १९६३ ) का जन्म अमृतसर (पंजाब) में हुआ था जिनका प्रचलित नाम गामा पहलवान था| बहुत से प्रसिद्ध पहलवानों को हराने के बाद , वे अपने भाई इमाम बक्श के साथ, वेस्टर्न पहलवानों से प्रतिस्पर्धा के लिए , इंग्लैंड गए| लंदन में उन्होंने एक चुनौती रखी की वे तीस मिनट के अन्दर तीन पहलवानों को हरा सकते हैं और पहलवान चाहे जिस भी भार सीमा के हों | उन्होंने सभी वेस्टर्न पहलवानों को हराया और विजयी घोषित हुए ; उन्हें ‘John Bull Belt’ का अवार्ड मिला | इससे भारत ने विश्व को दिखा दिया की हम किसी से भी बॉडी बिल्डिंग में पीछे नहीं हैं | प्रसिद्ध अमेरिकी मार्शल आर्टिस्ट Bruce Lee गामा पहलवान के अभ्यास के तरीकों से काफी प्रभावित थे और उनके तरीकों को अपनाया था | तब तक गुलाम मुहम्मद ‘Gama the great’ के नाम से जाने जाने लगे थे और भारतीय स्वंत्रता संघर्ष में वीरता की प्रतिमूर्ति बन गए थे | प्रतिनिधि पन्त जो की औंध (Princely state in British India in Pune, Maharashtra) के राजा थे , वो भी एक पहलवान थे |१८९७ में उन्होंने sandow के सारे tools और किताबें खरीद लीं थीं | दस साल उन्होंने sandow के बॉडी बिल्डिंग के तरीकों का अभ्यास किया | इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेता बाल गंगाधर तिलक बॉडी बिल्डिंग के बड़े समर्थक थे | वो रत्नागिरी के एक चित्पावन ब्राह्मण परिवार से थे जो की औंध से ३०० किलोमीटर दूर है | तिलक ने औंध के राजा को मना लिया की वो कुछ साधारण व्यायाम के तरीके बनायें जिसे आम लोग कर सकें और जिसके लिए ज़्यादा जिमखानों के उपकरणों की ज़रुरत न हो | बहुत प्रयासों के बाद राजा एक साधारण व्यायाम के तरीके को बनाने में सफल रहे जिसका नाम था ‘सूर्यनमस्कार’ | इस व्यायाम का सूर्य या सूर्य की अर्चना से कोई सम्बन्ध नहीं है (Reference: Manuals of Suryanamaskar method: Pant). आज कल सूर्यनमस्कार को कुछ धार्मिक रंग दिए गए हैं और इसे जानबूझ कर सूर्य की अर्चना से जोड़ा गया है | हिंदू सांप्रदायिक लोगों ने इसे प्राचीन परंपरा बताकर इसकी उत्पत्ति वैदिक काल में हुई और यह हिंदू परंपरा का एक अंग है , ऐसा कहते हैं | एक बार इस व्यायाम को धार्मिक रंग दे दिया गया तो गैर हिंदू लोगों ने भी इसे हिंदू परंपरा समझा और इसे उनके धर्म के विरुद्ध कह कर इस व्यायाम को करने का विरोध किया | जून २०१५ BJP MP (गोरखपुर) योगी आदित्यनाथ ने कहा की सूर्यनमस्कार सूर्य की अर्चना है और इससे मस्तिष्क शुद्ध होता है ; जो भी इसके खिलाफ है वह समुद्र में डूब कर मर जाये या अँधेरे कमरे में रहे या हिंदुस्तान छोड़ दे | All India Muslim personal board ने जवाब में कहा की वे हिंदू धार्मिक रीती को शिक्षा संस्थाओं में लागू करने के खिलाफ पूरे देश भर में आन्दोलन चलाएंगे| दोनों पक्ष ही इस व्यायाम की सच्चाई से अनभिज्ञ हैं | वैसे ऐसी नौटंकी भारत में आये दिन होती ही रहती है | सूर्यनमस्कार न तो वैदिक काल का है , न ही सनातन हिंदू धर्म का अंग | यहाँ तक की यह हठ योग की परंपरा का हिस्सा भी नहीं है | इसे किसी सन्यासी ने नहीं बनाया , न ही किसी अध्यात्मिक गुरु ने और न ही किसी राष्ट्रीय नेता ने बल्कि इसे बनाया एक पहलवान ने | एक समुदाय इसे नहीं करना चाहता क्योंकि यह इस्लाम के विरुद्ध है , दूसरा समुदाय कहता है की इसे करना हर भारतीय के लिए अनिवार्य है और जो इसे नहीं करेगा वो राष्ट्र विरोधी माना जायेगा | सूर्यनमस्कार और कुछ नहीं एक साधारण सा व्यायाम है ; आप को अच्छा लगे तो इसे करिए लेकिन यह सोचकर स्वयं को मूर्ख मत बनाईये की इसको करके आप किसी देव की पूजा कर रहे हैं और कृपा करके इसे करने के लिए किसी को मजबूर भी मत करिए | वैसे ही यदि आप को नहीं पसंद तो इसे मत करिए लेकिन इसे हिंदू धर्म की चीज़ बता कर और यह साधारण सा व्यायाम आपके इस्लाम के खिलाफ है ऐसा मत कहिये | ये सारी बे सिर पैर की बातें हैं | हम सभी को कुछ व्यायाम करना है| आज के समय में हमने सूर्यनमस्कार से भी अधिक आसान और प्रभावी व्यायाम के तरीके बना लिए हैं |

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 स्वीडन के physical educator Pehr Henrik Ling (1766-1839), जो की शारीरिक प्रशिक्षण के अगुआ थे , ने जिमनास्टिक अभ्यास के तरीकों को और विकसित किया | आज के जिमनास्टिक और शारीरिक व्यायाम की प्रणाली जो हम जानते हैं उनके द्वारा ही विकसित की गयी हैं | स्वीडिश सरकार के अनुदान से उन्होंने Royal Gymnastic Central Institute for training of Gymnastic instructors की स्थापना stockholm में की और उसके प्रधानचार्य बने | जिमनास्टिक को, महंगे उपकरणों के इस्तेमाल के बिना कर सके ऐसा विकसित करने का काम सिर्फ औंध के प्रतिनिधि पन्त ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में ऐसा करने की कोशिश चल रही थी | अपने समय के विश्व प्रसिद्ध जिमनास्टिक ट्रेनर डेनमार्क के Niels Bukh (1880-1950) एक दुसरे प्रकार के उपकरण मुक्त जिमनास्टिक और ड्रिल करने के तरीके को विकसित करने में सफल रहे और जिसे भारत में ब्रिटिश द्वारा चलाया गया और YMCA (Yong Men’s Christian Association) ने इसे प्रचारित किया | ( दिलचस्प बात यह है की Niels Bukh हिटलर के समर्थक थे और उनके आर्यों की प्रजाति के स्वास्थ्य को जिमनास्टिक की मदद से बेहतर बनाने के उद्द्देश्य को प्रोत्साहित करते थे !!)ऐसा होने की वजह से physical education या फिजिकल ट्रेनिंग स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया | Ling Gymnastics के आने के बाद ‘Drill system’ फिजिकल एजुकेशन में एक मान्य तरीका बना | Ling’s physical training systems ने फ़ौज के प्रशिक्षण को भी प्रभावित किया | भारत में ब्रिटिश मिलिट्री सर्विस (Sepoys) खोलने के बाद और ब्रिटिश काल के दौरान पूरे भारत में इसाई मिशनरियों के अंग्रेजी स्कूल खोले जाने के बाद , Ling और उनकी शाखाएं भारत में काफी प्रसिद्ध हो गयीं | बहुत से क्रन्तिकारी स्वतंत्रता सेनानियों का उद्देश्य जिमनास्टिक सीख कर और शारीरिक व्यायाम के पश्चिमी तरीके अपनाकर अंग्रेजों से लड़ने के लिए मज़बूत बनना था | जैसे की बंगाल के क्रांतिकारी | यह सबसे सही , सबसे अच्छा , सबसे सभ्य और वैज्ञानिक तरीका है की हम अच्छी बातों को जो विश्व के किसी भी भाग से आती हों उसे अपना लें और उसके प्रति आभारी हों ; लेकिन उसके साथ ही किसी भी प्रकार के अन्याय को बर्दाश्त न करें , उनका भी नहीं जिनके हम आभारी हैं | अपने देश की महान बातों पर गर्व और उसके साथ ही देश की कमियों और बुराइयों को स्वीकार करने का साहस भी, दुश्मन की महान बातों की तारीफ़ लेकिन किसी को भी अपने ऊपर राज नहीं करने देना भी | इसके लिए स्वयं के देश और दूसरे देशों के बारे में पूरी जानकारी होने की ज़रुरत थी | नवजागरण बंगाल की पृष्ठभूमि थी , इसीलिए बंगाली क्रन्तिकारी ऐसा कर सके | भारत के दुसरे बड़े हिस्से के लोग अलग थे | ब्राह्मण और दूसरी ऊँची जातियां अच्छे सामाजिक स्तर में थे और इस स्वप्ननगरी में जी रहे थे की वो हर तरह से श्रेष्ठ हैं | अंग्रेजों के भारत में कदम रखने के बाद उन्होंने यह रुतबा खो दिया और यह सहज ही साबित था की वे यूरोपियों से ज्ञान और शारीरक तौर पर या और भी बहुत सी बातों में नीचे हैं | और जैसा की पहले बताया की औपनिवेशिक लोगों के बारे में साम्राज्यवादी व्याख्यान ने हीनता की भावना भर दी थी | हीनता की भावना से कुंठित उन्होंने यह तर्क करना शुरू कर दिया की प्राचीन भारत के लोग सभी मामलों में बहुत आगे थे , बहुत सा ज्ञान जो पश्चिमी लोगों को अभी हुआ है वह उन्हें पहले से था और ये सब संस्कृत धर्म ग्रंथों में लिखा हुआ है | अपने मानसिक सांत्वना के लिए उन्होंने यह माना की उन्हें सिर्फ संस्कृत मूलग्रन्थ समझना है और सही ढंग से व्याख्या करनी है फिर वे अंग्रेजों से अधिक ज्ञानी और शक्तिशाली बन जायेंगें | याद होगा स्वामी दयानंद सरस्वती का वाक्य “Go back to Vedas”. इस अपरिपक्व , मूर्खतापूर्ण , ख़तरनाक , अहितकर और देशद्रोही समझ को प्रतिक्रियावादी प्रवित्ति कहते हैं | यह राजा राम मोहन रॉय द्वारा शुरू किये गए पुनर्जागरण से वापस जाने जैसा है | यदि पुनर्जागरण भारत में सफल रहा होता तो भारत का आधुनिकीकरण दूसरे यूरोपीय देशों की तरह हो गया होता जहाँ लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण होता | प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति , क्रान्तिकारी प्रवित्ति से बिलकुल विपरीत है और उनकी लड़ाई आज भी भारत की धरती पर जारी है | आधुनिक योग ऐसी पृष्ठभूमि में पैदा हुआ | प्राचीन ज्ञान की खोज में श्री योगेन्द्र ने हठ योग को पुनर्जीवित किया | और कुछ दूसरे लोग जैसे स्वामी कुवैलानाद ने हठ योग को श्रेष्ठ साबित करने के लिए शोध कार्य भी शुरू किया | संस्कृत परंपरा में कुछ भी न मिलने से परेशान होकर कुछ कुटिल लोगों ने जैसे की कृष्णमाचार्य ने आज के जिमनास्टिक / व्यायाम को और सर्कस की मुद्राओं को संस्कृत नाम देने की कोशिश की और कहा की यह भारतीय है | इन लोगों के अधिक अनुयायी हुए | बाद में इन सारी गतिविधियों को एक जगह एक किताब के रूप में B.K.S Iyengar इयांगर ने संकलित किया जिसका नाम था “Light on Yoga” और पहली बार इस बात का दावा किया की योग आसन में रोगों को ठीक करने की सामर्थ्य है और इसे एक दूसरी चिकित्सा पद्धति के रूप में आरम्भ किया | भारत में व्यापार करने को तैयार कुछ लोग ने इसमें पैसा कमाने की अच्छी संभावना देखी और योग को बाज़ार की वस्तु बनाया |
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 जबकि हठयोग का प्रचलन मुख्यतः उत्तर प्रदेश , बिहार ,बंगाल आदि क्षेत्रों में था , आधुनिक योग का केंद्र बना महाराष्ट्र – सौराष्ट्र क्षेत्र | हमने पहले देखा है की सूर्यनमस्कार के प्रणेता प्रतिनिधि पन्त पुणे महाराष्ट्र के थे | इस कड़ी में आगे बात करते हैं गुरु जुम्मादादा की | गुरु जुम्मादादा (१७८४ – १९०४ ) का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था और उन्हें बचपन में बड़ोदरा साम्राज्य की राजमाता ने गोद लिया | उस भारतीय कुश्तीबाजी और मार्शल आर्ट के स्वर्णयुग में , बड़ोदरा राज्य इसको संरक्षण देने में सबसे आगे था | जुम्मादादा अच्छी कद काठी के थे और इसलिये महल में गीता पढ़ने और संस्कृत सीखने के साथ साथ उन्होंने अखाड़ा जाना भी शुरू किया | जल्द ही उन्होंने तलवारबाज़ी और खंजर चलाने में महारत हासिल कर ली और प्रसिद्ध पहलवान बन गए | बाद में वे संयोग से अपने सगे भाई और माँ से मिले जिनसे वे बचपन में बिछड़ गए थे | जुम्मादादा ने अपना अखाड़ा १८५३ में शुरू किया | उन्होंने कभी भी अपनी फ़ोटो (तस्वीर) नहीं खीचने दी | १०० साल से अधिक उम्र पर अपनी मृत्यु के समय उन्होंने अपने शिष्यों को यह उपदेश दिया की “ पूरे हिंदुस्तान में इस physical ट्रेनिंग के मिशन को फैला दो | कोई भी घर बिना शारीरिक कसरत के न रहे | यही मेरी सच्ची तस्वीर होगी |” उनके सबसे गुणी और प्यारे शिष्य मानिक राव ने यह तय किया की वो अपने गुरु की इस इक्षा को पूरा करेंगे | मानिक राव (१८७८ – १९५४ ) का जन्म बड़ोदरा के गायकवाड योद्धा परिवार में हुआ था जिनके पूर्वज महाराष्ट्र के सतारा जिले से यहाँ आये थे | उन्होंने ८ वर्ष की उम्र से ही जुम्मादादा से सीखना शुरू कर दिया था | अपने गुरु की मृत्यु के बाद मानिक राव ने अखाड़े का नाम “श्री जुम्मादादा व्यायाम मंदिर” रखा | उन्होंने मार्शल आर्ट सीखने की कला में एक क्रांति लायी सामूहिक ड्रिल के माध्यम से ; जिसे की अभी तक कोई नहीं जनता था और यह अपनेआप में एक बिलकुल नया तरीका था | इससे physical ट्रेनिंग अधिक आकर्षक और लोगों के लिए आसान हो गयी | उन्होंने सिखाया की यह बहुत ज़रूरी था की शारीरिक रूप से पुष्ट लोगों की फ़ौज बनायी जाये जो स्वतंत्रता को जीत सकें और इसे बनाये रख सकें | अच्छे संपन्न परिवार के लोग , खास तौर पर ब्राह्मण परिवार के लोग कला , साहित्य , नृत्य , कसरत , कुश्ती , चिकित्सा पद्धति आदि को गिरी हुई नज़रों से देखते थे और इसे दोयम दर्ज़े का काम समझते थे |(सच्चाई ये है की जब ब्राह्मण और हिंदू धर्म भारत को अंध युग में रखे हुए थे उस समय भारत की भूमि में,सिन्धु घटी की सभ्यता के खत्म होने के बाद, महान संस्कृति और सार्थक ज्ञान को मध्यम और नीचे तबके के लोगों ने जिंदा रखा | यह एक असुविधाजनक सूचना हो सकती है , जैसे की मेरे योग पर लिखे लेख | इसके बारे में विस्तार बाद में कभी| ) मानिक राव के प्रयासों ने अच्छे परिणाम दिए और बहुत से संपन्न परिवार अपने बच्चों को अखाड़े में भेजने लगे | अखाड़े का नाम बदल कर व्यायाम मंदिर रखने से भी फायदा हुआ | इस तरीके को प्रचारित करने के लिए वह व्यायाम के अलग अलग तरीकों को संस्कृत नाम देने लगे | drill system को नाम दिया संघ व्यायाम | physical ट्रेनिंग के समय दिए जाने वाले कमांड को भी हिंदी /संस्कृत नाम दिए | १९११ में उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम था “बोधक पत्र” जिसमे उन्होंने बहुत से व्यायामों को भारतीय नाम दिए | (बहुत से कमांड जो हम RSS के ड्रिल में सुनते हैं वो मानिक राव जी के ही दिए हुए हैं ) १९१५ में उन्होंने ‘कन्या आरोग्य मंदिर’ शुरू किया जो महिलाओं को व्यायाम सिखाने का केंद्र था | बरौदा के राजा के कहने पर उन्होंने एक शस्त्रों का संग्रहालय खोला | उन्होंने भारतीय शस्त्रों पर विस्तृत अध्ययन कराया और भारतीय शस्त्रों पर एक प्रमाणिक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम था “श्री प्रताप शास्त्रंगर” | उनके ज्ञान से प्रभावित हो कर बाल गंगाधर तिलक ने १९०६ में उन्हें ‘प्रवक्ता’ की उपाधि दी | फिजिकल ट्रेनिंग को लोगों में प्रचारित करने के लिए, उन्होंने अल्पकालिक पाठ्यक्रम भी १९२१ में चलाया | उन्होंने महात्मा गाँधी के गुजराती अख़बार में अपने लेख में शारीरिक व्यायाम की बात पर ज़ोर दिया और हिंदी और मराठी में बहुत सी किताबों के ज़रिये बहुत सी भारतीय व्यायामों को बताया | ७६ वर्ष की उम्र में जब वह मृत्यु के करीब थे तब तक उन्होंने एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह अपने गुरु का सपना उनसे जितना हो सकता था उसे पूरा कर दिया था |उन्हें देश का शारीरिक व्यायाम सुधारक कह सकते हैं |
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प्रोफ़ेसर मानिकराव ने शारीरिक व्यायाम की एक संस्कृति की शुरुआत तो की लेकिन उनका महत्वपूर्ण योगदान आधुनिक योग के शुरुआत में यह है की उन्होंने जिम्नास्टिक की तकनीकों , सर्कस के तरीकों और दुसरे व्यायामों को संस्कृत या भारतीय नाम दिए | यह पहला कदम था | दूसरा बड़ा कदम आधुनिक योग की उत्पत्ति में यह था की हठ योग और जिमनास्टिक / सर्कस / व्यायाम के तरीकों को मिलाने या समन्वित करने की कोशिश की गयी | और यह कार्य किया जगन्नाथ गणेश गुणे (१८८३ -१९६६ ) ने जो की स्वामी कुवलायानंद के नाम से लोकप्रिय हैं | उनका जन्म कर्हड़े ब्राह्मण परिवार में गुजरात के धबोई में हुआ था | जब वे विद्यार्थी थे उन दिनों में वह अरबिन्द घोष और बाल गंगाधर तिलक से काफी प्रभावित थे| बाद में १९०७ -१९१० के दौरान उन्होंने प्रोफेसर मानिकराव की देख रेख में सैन्य तकनीक और जिमनास्टिक की ट्रेनिंग ली | १९१९ में वे बंगाली योगी श्रीराम परमहंस माधवदास जी महाराज के संपर्क में आये जो की बरोदा में रहते थे | (यद्यपि हठयोग कानूनन प्रतिबंधित था फिर भी कुछ योगी गुप्त रूप से इसका अभ्यास करते थे | ) यह गुणे के जीवन का बड़ा महत्वपूर्ण मोड़ था | पहले हमने देखा की मध्य युग में हठ योग की तकनीक जो की एक सभ्य आधुनिक समय के व्यक्ति के लिए अत्यंत घृणास्पद या भयानक या आतंकित कर देने वाली होती थीं | एक मध्यकाल के साधारण नागरिक के समान उन्होंने भी आश्चर्य और भय से हठ योगियों को देखा | गुणे बंगाली योगी की चमत्कारी शक्तियों से चकित थे | याद रखें की गुणे आखिर एक जिमनास्ट थे कोई ह्यूमन एनाटोमी के शिक्षित डॉक्टर नहीं | हठ योग के रहस्यमयी क्रिया कलापों का मानव शरीर पर दुष्प्रभाव ह्यूमन एनाटोमी और शरीरविज्ञान जैसे विकसित ज्ञान के द्वारा ही समझा जा सकता है | ब्रिटिश भारत की परिस्थितियां अलग थीं | माधवदासजी की शक्तियों से चकित , गुणे ने अपना यह लक्ष्य बनाया की वे योग के वैज्ञानिक आधार की खोज करेंगें | ब्रिटिश भारत में साधारण मनोवैज्ञानिक तौर पर जैसे सभी ऊँची हिंदू जाति के लोग सोचते थे , गुणे ने भी यही माना की प्राचीन भारत का ज्ञान सभी मायनों में अग्रणी है| साथ ही वह ये भी जानते थे की जो व्यायाम की विधि उन्होंने मानिकराव से सीखी थी वह और कुछ नहीं बल्कि स्वीडन का हेनरिक लिंग का तरीका ही था भले ही मानिकराव ने उसे भारतीय नाम दे दिया हो| एक अजीब विचार उनके दिमाग में आया – पश्चिमी शारीरिक व्यायाम के तरीकों और भारतीय हठ योग को जोड़ दिया जाये | उन दिनों के बहुत से यूरोपीय लोगों और आज के बहुत से भारतियों की ही तरह गुणे ने भी सोचा की भारत आध्यात्म और यूरोप विज्ञान की धरती है | ( यह विश्व और इतिहास की गलत समझ है | दोनों ही जगहों पर विज्ञान के साथ आध्यात्म और धार्मिक हठधर्मिता रही है | यूरोप और भारत दोनों जगह धर्म / आध्यात्म १००० साल तक हावी रहा लेकिन आधुनिक समय में यूरोप में विज्ञान ने अग्रणी स्थान ले लिया किन्तु दुर्भाग्यवश भारतीय पुनर्जागरण के असफल होने के चलते भारत में आध्यात्म और धर्म आज भी सामाजिक शक्ति के रूप में स्थापित हैं | ) किसी प्रकार गुणे ने अपनी एकपक्षीय समझ के अनुसार महान भारतीय आध्यात्म और महान यूरोपीय विज्ञान को एक साथ लाने का निर्णय किया | प्रमाणिक तौर पर इसका निरीक्षण योग के मानव शरीर पर प्रभाव को जानने के लिए उन्होंने अपने कुछ विद्यार्थियों की मदद से बरोडा अस्पताल के प्रयोगशाला में किया | १९२४ में गुणे ने Kaivalyadhama Health and Yoga Research Center की स्थापना लोनावला ,महाराष्ट्र में अपने योग पर वैज्ञानिक अध्ययन को एक प्रयोगशाला देने के उद्देश्य से किया| यह योग पर शोध करने की शुरुआत थी | आसन जैसे की षट्कर्म , प्राणायाम आदि का मानव शरीर पर प्रभाव के अध्ययन की शुरुआत हुई | इन अध्ययनों को प्रकाशित करने के लिए ‘योग मीमांसा’ नाम के जर्नल को प्रकाशित किया जो की योग पर पहला जर्नल था | ये प्रकाशन और आगामी प्रचार ने पश्चिमी शोधकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया जो इन रहस्यमयी तरीकों की असलियत समझने के लिए उत्सुक थे | Dr. Josephine Rathbone (Professor of health and Physical Education, Columbia University), K.T. Behanan (Doctoral candidate, Yale University), Wenger (Physicians, California University) and Bagchi (Michigan University) इसी उद्देश्य से गुणे के इंस्टिट्यूट आये | विदेशियों की इस यात्रा को प्रचारित किया गया | सभी ने योग में बड़े व्यापार की संभावना को समझा | योग के द्वारा बहुत से रोगों का इलाज और रोगों को रोकने के लिए ईश्वरदास चुन्नीलाल योगिक हेल्थ सेंटर बॉम्बे में खोला गया | Kaivalyadhama Shriman Madhava Yoga Mandir Samiti (लोनवला ,महाराष्ट्र) की स्थापना योग में वैज्ञानिक शोध और योग साहित्य के लिए हुई | Srimati Amolak Devi Tirathram Gupta Yogic Hospital योग की मदद से chronic functional disorders को ठीक करने के उद्देश्य से खोला गया | Govardhandas Seksaria College of Yoga and Cultural Synthesis की स्थापना १९५१ में लोनावला में युवा लोगों को अध्यात्मिक और मानसिक तौर पे तैयार करने के लिए हुई ताकि वे मानवता की निस्वार्थ सेवा कर सकें!! गुणे बिन थके काम करने वाले और सफलतापूर्वक अनुदान इकठ्ठा करते थे | उन्होंने अपने काम को राष्ट्रीय नेताओं को बताया और जवाहरलाल नेहरु को अपने इंस्टिट्यूट लाने में सफल रहे |नेहरु की इस इंस्टिट्यूट यात्रा से आधुनिक योगासन को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली |

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मणिभाई हरिभाई देसाई (१८९७ -१९८९ ), जो की योगेन्द्र के नाम से जाने जाते थे और सूरत (गुजरात) में पैदा हुए थे, इस योगासन के बनने के युग के दौरान, वो एक और अलग तरह की धारा के प्रवर्तक थे | और यह धारा थी हठ योग के पुनरुत्थान की | बचपन में ख़तरनाक ‘कनफटा’ लोगों ने उनका अपहरण कर लिया था लेकिन किसी प्रकार वे बच गए थे | कनफटा शैव सम्प्रदाय के तांत्रिक हठयोगी थे | इस बात का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपने आप को धार्मिक जीवन से दूर ही रखा और अपने बॉम्बे के विद्यार्थी जीवन में स्वयं को पुनर्जागरण की संस्कृति से जोड़ा | ऐसे ही १९१९ में उनके साथी ने उनका परिचय प्रसिद्ध हठयोगी परमहंस माधवदासजी से करवाया ,ये वही व्यक्ति थे जिन्होंने स्वामी कुवलायानंद जी को भी प्रभावित किया था | यहाँ भी कहानी वही थी | मणिभाई माधवदासजी की जादुई शक्तियों से मंत्रमुग्ध थे | उन्होंने हठ योग का अभ्यास शुरू किया | वो लोगों को हठयोग, भारतीय नेशनल कांग्रेस के नेता दादाभाई नौरोजी के वर्सोवा बीच (बॉम्बे ) पर स्थित घर पर सिखाने लगे | उन्होंने योग पर एक पुस्तक “The lost science of 5000 years ago” के नाम से प्रकाशित की | जैसा की हमने पहले देखा की उन दिनों ,भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, हर प्रकार के अतार्किक और इतिहास के विरुद्ध किसी भी दावे के लिए वह उपयुक्त समय था | हर कोई किसी न किसी कारण की तलाश में था जिससे की वह अपने राष्ट्र पर गर्व कर सके और दुर्भाग्य से २००० साल के ब्राह्मणवादी जातिवादी हिंदू समाज ने कुछ भी ऐसा नहीं दिया था | यहाँ तक की बहुत से नेशनल कांग्रेस के नेता इस तरह कहानियां बनाने और झूठे दावे करने की नयी परंपरा को बढ़ावा दे रहे थे या स्वयं उसकी शुरुआत कर रहे थे | भगत सिंह , सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरु के समान खुद के प्रति सच्चा रहने और विश्व को वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत ढंग से समझने के लिए अत्यंत परिपक्वता की आवश्यकता थी | योगेन्द्र ने ‘प्राणायाम’ पर शोध किये | उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका का दौरा किया और योग पर व्याख्यान दिए तथा X-ray से व्यायामों का अन्वेषण किया यह दिखाने के लिए की योगासन अत्यंत लाभप्रद हैं | जल्द ही उन्होंने न्यूयार्क में योग इंस्टिट्यूट स्थापित किया | बाद में उन्होंने पूरे भारत में योग पर व्याख्यान दिए | फिर भी उनकी बचपन की बुरी यादें – हठयोगियों द्वारा अपहरण – अब भी उनकी मानसिक शांति को अघात पंहुचा रही थीं | इसलिए हठ योग को पुनर्जीवित करने की बजाय वास्तव में उन्होंने हठ योग को बदलकर उसे सरल बनाया और उसके कुछ अंशों को लिया और आम लोगों के लिए ग्राह्य बनाया| इस दिशा में बड़ा कदम थी यह पुस्तक “Simple Poses for a Women” जो की उनकी पत्नी सीता देवी ने लिखा था | ये आधुनिक योग के निर्माण में वास्तविक अंशदान था |वो अपनी पत्रिका “योग” और सान्ताक्रुज़, बॉम्बे में बनाया योग इंस्टिट्यूट तथा “cyclopedia yoga” के लिए जाने जाते थे |

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योग के निर्माण का अंतिम चरण –संगठन और संकलन – महाराष्ट्र-सौराष्ट्र क्षेत्र में नहीं बल्कि कर्नाटक में हुआ | इस कार्य को पूरा किया तिरुमलै कृष्णमाचार्य , B.K.S अय्यंगार और पट्टाभी जोइस ने | उन्होंने अपने समय के प्रसिद्ध जिमनास्ट K.V.अय्यर से बहुत कुछ सीखा और उसकी नक़ल की लेकिन इस प्रकार जो योगासन उन्होंने बनाये उसके लिए उन्होंने अय्यर का नाम भी नहीं लिया और यह दावा किया की उन्हें यह ज्ञान प्राचीन संस्कृत साहित्य से मिला जिसकी जानकारी स्वामी विवेकानंद तक को भी नहीं थी | इसलिए यहाँ बात करते हैं जिमनास्ट K.V.अय्यर (1897-1980) की जिन्हें लोग कम ही जानते हैं | उनका जन्म कोलार (कर्नाटक ) के एक पारम्परिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था | अपनी गरीबी के चलते प्राइमरी स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के बाद वे काम के लिए बैंगलोर चले आये जहाँ पर वह बॉडीबिल्डिंग से बहुत प्रभावित हुए और जिमखाना जाने लगे | १९२५ में उन्होंने खुद का जिमखाना शुरू किया | उनका यह पेशा इतना बढ़ा की वो २५००० छात्रों को सिखा सकते थे तथा बाहर के लोगों के लिए छात्रावास की व्यवस्था और डाक द्वारा देश और विदेश में शिक्षण की व्यवस्था की | १९२९ में कन्नड़ लेखक और भूवैज्ञानिक T.P.Kailasam की सलाह से वह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान , शरीर विज्ञान और शरीर क्रिया विज्ञान सीखने लगे | इससे उन्हें यह समझने में मदद मिली की शारीरिक व्यायाम का आधुनिक कान्ति वर्धक प्रतिरूप क्या है बजाय यह मानने के की आदर्श शरीर प्राप्त करने के लिए कैसे पांच तत्वों पर विजय प्राप्त करनी होगी, जैसा की हठ योगियों ने कहा था | उनके चिकित्सा विज्ञान और शरीर विज्ञान के ज्ञान की वजह से उन्हें मैसूर के महाराजा के यहाँ व्यक्तिगत चिकित्सक की नौकरी मिली और उन्होंने अपना निवास स्थान बंगलोर में बनाया | महाराजा के समर्थन से उन्होंने अपने जिमखाने की एक नयी शाखा मैसूर पैलेस में आरंभ की | १९३० तक उन्होंने अपने समय के विश्व प्रसिद्ध बॉडी बिल्डर्स – Eugene Sandow,John Grimet, Monrow Brown, Sigmund Klein, Anthony Sansone, George F Jowett आदि से पहचान बनायी| इस सब की मदद से उनकी फ़ोटो बहुत सी स्वास्थ्य और muscle building मैगज़ीन में छपी जैसे की Superman, Health and Strength, America’s physical culture and strength आदि | उन्होंने सक्रिय रूप से विधवा विवाह और अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया | वास्तव में सदाशिवम अय्यर और M S सुब्बलक्ष्मी,जो की देवदासी परिवार की थीं ,का विवाह उन्होंने ही कराया था | वह पंडित रविशंकर और पंडित अली अकबर खान के करीबी थे | १९३४ में उन्होंने सूर्यनमस्कार, जो की प्रतिनिधि पन्त ने विकसित किया था , पर एक किताब लिखी जिसमे इस व्यायाम के शारीरिक लाभों के बारे में लिखा | उन दिनों में उन्हें जो भी ज्ञान था उस आधार पर व्यायाम के समय शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तन, मांसपेशियों का रासायनिक विवरण और मांसपेशियों के शरीर विज्ञान आदि पर अपनी किताब , “Chemical changes in physical exercise” में लिखा | उनकी श्रेष्ठ कृति थी “Physique and figure” जिसमे व्यायाम का वर्णन बहुत से चित्रों द्वारा किया गया है | अपने चिकित्सा ज्ञान के आधार पर उन्होंने व्यायाम के समय होने वाली शारीरिक समस्याओं के बारे में बताया और अलग अलग व्यायाम के समय क्या सावधानियां बरतनी चाहिए उसका भी वर्णन किया | यह K V अय्यर ही थे जिन्होंने अलग अलग व्यायाम करते हुए muscle men की फोटो का इस्तेमाल किताबों और एल्बम के लिए किया | उनकी दिलचस्प किताबों में से एक है “Muscle cult a problem to my system”. यद्यपि K V अय्यर अपने समय और सामाजिक परिवेश से बंधे थे अन्यथा उनका तरीका काफी हद तक वैज्ञानिक था | आधुनिक जिमखाना , व्यायाम और शरीर बनाने की प्रथा इसी रास्ते शुरू हुई | बहुत से व्यायाम जो विकसित हुए उनपर सावधानी पूर्वक अध्ययन हुआ और सावधानी बरतने की बात हुई जिससे की व्यायाम का शरीर पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े | ऐसे अध्ययन के आधार पे बहुत से व्यायाम बदले गए या फिर छोड़ दिए गए | ऐसे व्यायामों का पता उस समय की किताबों से ही चलता है | जब किसी भी बात के साथ धार्मिक विश्वास जुड़ जाते हैं तो उसके अवशेषों को बचाया जाता है और उसका अभ्यास रोज़मर्रा के जीवन में प्रचंडता और अंधेपन के साथ किया जाता है | यह इसलिए की धर्म अतार्किक और अँधा है जो अज्ञानता पर ही फलता फूलता है | धर्म अपनी जड़ता बनाये रखता है | विज्ञान तार्किक और खुला हुआ है जो की तथ्यों और आकड़ों पर आधारित होता है | विज्ञान नए ज्ञान से बदलकर स्वयं को और सही बनाने के लिए तत्पर रहता है | आधुनिक योग को विकसित करने वाले, जिम्नास्टिक और शरीर बनाने की तकनीकों को संस्कृत नाम देकर ( नाम जो उन्होंने खुद इजाद किये थे), और हठ योग की कुछ तकनीकों को भी उसमे मिलाकर, योगासन बनाये और दावा किया की यह प्राचीन संस्कृत पुराणों से लिया गया है | योगासन बहुत से रोगों का उपचार करते हैं , उन्होंने ऐसा दावा किया जो की तब तक जिमनास्ट करने वालों ने सपने में भी नहीं सोचा था | और तो और आधुनिक योगियों को ये अंदाज़ा नहीं है की बहुत से योगासन जिसको करने की वो सलाह देते हैं उसके बहुत से दुष्प्रभाव (side effects) हैं और आधुनिक शारीरिक व्यायाम व्यवहार में वो छोड़ दिए गए हैं और उनकी जगह अधिक साधारण और प्रभावी व्यायामों ने ले ली हैं जिनके कम side effects हैं | हिंदू धर्म ने अपने अंधविश्वासों और हठधर्मिता से प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्र , आयुर्वेद , धातुविज्ञान ,गणित आदि को धार्मिकता से जोड़कर उनके विकास को रोक दिया| वह ज्ञान गतिहीन तथा नए ज्ञान और नयी खोजों , तब्दीलियों के प्रतिकूल हो गया| उसका विकास रुक गया | उसी तरह आधुनिक शारीरिक व्यायाम संस्कृति, जिसे की भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के समय के राष्ट्रीय नेताओं ने प्रोत्साहन दिया, उसको कुछ संस्कृत नाम देकर और अवैज्ञानिक दावे करके योगासनों में बदल दिया गया | यह भारत के महान व्यायाम संस्कृति का अंत था जिसकी शुरुआत बंगाल क्रांतिकारियों से हुई और जिसे विकसित किया था गामा पहलवान , राष्ट्रीय नेताओं , प्रतिनिधि पन्त , k v अय्यर और भी दुसरे लोगों ने | उस शारीरिक व्यायाम की जगह आधुनिक अन्धविश्वास शुरू हुआ जिसे कहते हैं – योगासन | अगले भाग में देखेंगे की कैसे एक ब्राह्मण गुट ने मैसूर पैलेस में इस कार्य को अंजाम दिया |

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१८५७ तक भारतीय प्रायद्वीप का ज़्यादातर हिस्सा अंग्रजों के शासन में था, लेकिन कुछ छोटे क्षेत्र और जो की पूरे प्रायद्वीप पे फैले हुए थे, वो स्थानीय राजाओं के शासन में थे जिनपर अभी ब्रिटिश को जीत हासिल करनी थी | १८५७ के स्वंत्रता आन्दोलन का एक सबसे बड़ा परिणाम यह निकला की ईस्ट इंडिया कम्पनी के ब्रिटिश भारत पर अधिकार को ब्रिटिश संसद को सौंप दिया गया तथा और अधिक भारतीय क्षेत्रों को राजनितिक तौर पे अधीनस्थ किया जाना रोका गया | इसकी वजह से ब्रिटिश भारत में बहुत से राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र क्षेत्र बने जिन्हें प्रिंसली स्टेट कहा गया| आश्चर्य की बात ये है की ये प्रिंसली स्टेट का राज देश के लगभग आधे भाग (४०%)पर था| हम ब्रिटिश भारत को तो जानते हैं लेकिन उसी समय में इन प्रिंसली स्टेट के बारे में बात कम हुई हालाँकि इतिहासकारों के पास पूरी जानकारी है की इन प्रिंसली स्टेट में क्या हुआ लेकिन स्कूल और कॉलेज में पढ़ाये जाने वाले इतिहास में इसका अध्ययन नहीं है | ( नक्शा देखें और अनुमान लगायें की देश का कितना बड़ा हिस्सा प्रिंसली स्टेट के अंतर्गत था ) | ब्रिटिश भारत का नियंत्रण एक आधुनिक लोकतांत्रिक देश (ब्रिटेन) के हाथों में था जहाँ पुनर्जागरण (renaissance) के ऊँचे मूल्य और आधुनिकीकरण की चेतना थी | औपनिवेशिक शासन ,जो की साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा बनाया गया था , अपनी सभी कमजोरियों के बावजूद इस शासन ने ब्रिटिश भारत को और उसके लोगों को बहुत से आधुनिक और प्रगतिशील सोच से अवगत कराया जैसे की राष्ट्रीयता , धर्मनिरपेक्षता , समाजवाद , स्वतंत्रता , समान अवसर, अलग प्रजाति या धर्म या भाषा के लोगों से समान व्यवहार आदि | ब्रिटिश भारत राष्ट्रीय आंदोलनों का आकर्षण बिंदु बना और भारतीय राष्ट्रीयता का निर्माण क्षेत्र भी | लेकिन प्रिंसली स्टेट में शासन देशीय राजाओं के हाथ में था | ये प्रिंसली स्टेट अपने पुराने सामंतवादी मूल्यों और धार्मिक विचारों तथा जाति प्रथा के मनोविज्ञान के चलते आधुनिकता और राष्ट्रीयता के विरुद्ध थे | उनको साथ लेने की राष्ट्रीय नेताओं की बहुत कोशिश के बावजूद, प्रिंसली स्टेट्स राष्ट्रीय आंदोलनों के विरुद्ध थे और अंग्रेजों के भारत में रहने को प्रोत्साहित करते थे क्योंकि वो अपनी सत्ता उस समय खोने से डरते थे जब स्वंत्रता आन्दोलन सफल हों जायेंगे और भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बनेगा | इन्ही स्थानों पर संप्रदायिक विचारों को खूब बढ़ावा मिला | मुस्लिम प्रिन्सिली स्टेट में हिंदू उनके अंग्रेजों से बड़े दुश्मन थे और हिंदू प्रिंसली स्टेट में मुस्लिम अंग्रेजों से बड़े दुश्मन थे | हैदराबाद , पटिअला , कश्मीर , त्रावणकोर , मैसूर आदि प्रसिद्ध प्रिंसली स्टेट थे | स्वंत्रता संघर्ष की जीत के बाद , उनके राष्ट्रविरोधी सपने सरदार वल्लभभाई पटेल के लौह हाथों से चकनाचूर हो गए| किसी प्रकार , १९८० तक ज़्यादातर हिंदू या मुस्लिम संप्रदायिक नेता इन्ही राजाओं के परिवार से रहे हैं | जब ब्रिटिश भारत राष्ट्रीयता की भावना से ओत प्रोत हो अंग्रेजी राज के विरुद्ध क्रोध में जल रहा था और आधुनिक विकसित भारत का सपना देख था तब प्रिंसली स्टेट मध्यकालीन पतनशील संस्कृति को नया जीवन देने में लगे हुए थे | बहुत से अंध विश्वास जो की हमें प्राचीन समय के लगते हैं वो वास्तव में प्रिंसली स्टेट में राजाओं के सहयोग से शुरू हुए | बहुत से तर्क हिंदू धार्मिक विचारों या अंधविश्वासों के पक्ष में देना तथा आधुनिक सभ्य वैज्ञानिक जीवन शैली की विरोधी संस्कृति ; बहस और तर्क ( तार्किक भ्रम ??) देना , आधुनिक राष्ट्रीय मूल्य जैसे की धर्मनिरपेक्षता या भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक की मदद, पिछड़े सम्प्रदाय के पिछड़ेपन को समझ कर उन्हें उठाने की कोशिश , इस सब के विरुद्ध ; और बहुत से धूर्त तथा कपट का काम ताकि अपनी बात सही कह सकें ऐसा सबकुछ इन्ही स्थानों पर हुआ | यह प्रतिक्रियावादी सोच और अभ्यास धीरे धीरे देश के दुसरे भागों में फैल गए और उनका विस्तार हुआ , और आज यह बीजेपी के राजनैतिक प्रभुत्व तथा संघ परिवार के सांस्कृतिक प्रभुत्व के अंतर्गत भारतियों में प्रचलित हैं| योग का अंतिम संस्थापन और भारत के शारीरिक व्यायाम संस्कृति का पूरी तरह अन्धविश्वास में परिवर्तन, मैसूर प्रिंसली स्टेट ( अभी कर्नाटक में ) में मैसूर पैलेस के राजाओं की देख रेख में हुआ और इसे ऊपर कही बात के सन्दर्भ में समझा जा सकता है |

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मैसूर के राजा कृष्णराज वोडेयार (१८८४-१९४०) बहुत ही उत्सुक थे की भारत की अपनी एक पुष्ट शरीर बनाने की संस्कृति का प्रतिपादन हो | ऐसे शारीरिक व्यायामों की रचना जिसे हम मूलतः भारत का कह सकें | उन्होंने प्रोफेसर M V कृष्ण राव को इसके विकास के देख रेख के किये संयोजक नियुक्त किया | शुरू में योगशाला मुख्य रूप से युवा राजवंशियों की शारीरिक शक्ति को विकसित करने के लिए बनाया गया | शारीरिक व्यायाम के निर्देशों की कक्षा V.D.S नायडू के अंतर्गत थी | लेकिन बाद में महाराजा ने एक और व्यक्ति को विश्वास में लिया , वो थे तिरुमलै कृष्णमाचार्य (१८८८ -१९८७), जिनका जन्म चित्रदुर्गा (कर्नाटक ) के अयंगार ब्राह्मण परिवार में हुआ था |उन्होंने संस्कृत , छह भारतीय दर्शन , आयुर्वेद आदि की पढ़ाई मैसूर ,पटना ,बंगाल और बनारस आदि जगहों से की थी | कृष्णमाचार्य जिमनास्टिक या जहाँ कहीं से भी शरीर की मुद्राओं की प्रेरणा मिलती उसे लेकर अपने आसन बनाने में लगे रहते थे | प्रसिद्ध विद्वान बिहारी लाल को दिक्कनघाट के राजा के महल में वाद –विवाद में हराने के बाद वे काफी प्रसिद्ध हुए | वह नेपाल से होकर हिमालय तक की यात्रा कुछ हठ योगियों से मिलने के लिए करते थे | कृष्णमाचार्य को ही आज के समय में हठ योग को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है | हिमालय जाने के लिए उन्हें सीमा पार करने के लिए लार्ड इरविन से अनुमति लेनी पड़ती थी | कहा जाता है की उन्होंने इरविन को भी योग का प्रशिक्षण दिया | जयपुर के महाराजा ने उन्हें जयपुर के ‘विद्या शाला’ के प्रधानाचार्य पद के लिए आमंत्रित किया | थोड़े समय के बाद ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बनारस वापस आ गए | वहां वह मैसूर के राजा से मिले जो की किसी धार्मिक संस्कार के लिए बनारस आये थे | १९३१ में मैसूर के टाउन हॉल में उपनिषद पर दिए अपने एक व्याख्यान की वजह से वह भारत के शाही घरानों में प्रसिद्ध हो गए| जल्दी ही वह मैसूर के राजा के विश्वसनीय सलाहकार बन गए और उन्हें अस्थाना विद्वान (intelligentsia of the palace) की पदवी मिली | १९३३ में कृष्णमाचार्य ने जगमोहन पैलेस में अपनी योगशाला खोली | महाराजा की योग को बढ़ावा देने में रूचि थी और इसलिए उन्होंने कृष्णमाचार्य को देश भर में व्याख्यान देने और प्रदर्शन के लिए भेजा | इसके लिए खर्च हुआ पैसा मैसूर पैलेस के राजस्व खाते में ‘प्रचार के लिए’ नाम से दर्ज हुआ | कृष्णमाचार्य ने पूरे भारत में योग के प्रति रूचि पैदा करने के लिए प्रचार प्रदर्शन किये जिसमे उन्होंने नाड़ी स्पंदन रोकना , हाथों से कार रोक देना , कठिन आसनों को करना और दांत से भारी वस्तु को उठा लेना आदि जैसे करतब दिखाए ( इसमें कुछ भी अदभुत नहीं और ये सब करने की तकनीक बहुत से युक्तिवादी (rationalists) समूहों जैसे की दाभोलकर ग्रुप ने कर के दिखायीं हैं ) | कृष्णमाचार्य ने सूर्यनमस्कार K.V Iyar से सीखा ( जिनके बारे में पिछले पोस्ट में लिखा है ) जो अपना जिम्नेशियम मैसूर पैलेस के प्रांगण में चला रहे थे | उनके शिष्यों में से एक A.V Balasubramaniam ने बताया है की “ ३० वें और ४० वें दशक में कृष्णमाचार्य को लगा की लोगों को योग में रूचि कम है…वह लोगों में उत्साह और विश्वास पैदा करना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने कुछ हद तक सर्कस का काम किया …..उन्होंने अलग अलग जगहों से शारीरिक मुद्राएँ एकत्रित कीं और शाही संरक्षकों को ख़ुश करने के लिए उसे ही विकसित किया | इन नए आसनों को वो सिखाने लगे क्योंकि इसे अधिक से अधिक लोगों को सिखाना आसान था जैसे की ड्रिल सिखाना होता है |” कृष्णमाचार्य को विन्यासन का निर्माता माना जाता है | एक दुसरे शिष्य B.K.S Iyengar अपने संस्मरण में कहते है की “ यह मेरे गुरु का कर्तव्य था की महाराजाओं के लिए वातावरण को मनोरंजन और मानसिक आह्लाद से भर दिया जाये और यह प्राप्त करने के लिये वो अपने शिष्यों से अपने शरीर को मरोड़ कर बड़े ही प्रभावी तथा चकित कर देने वाली मुद्राएँ करवाते थे |” बड़ी ही आसानी से एक के बाद एक कई आसनों को दिखाने की परंपरा राजशाही संरक्षकों को ख़ुश करने के लिए बनायी गयी और साथ ही भव्य प्रदर्शन के लिए भी ताकि लोगों का ध्यान योग की ओर आकर्षित हो | लेकिन याद रहे की ‘आसन’ हठ योगियों के लिए भी सिर्फ ध्यान करने के समय बैठने की एक मुद्रा भर था | उन तक ने इसको एक के बाद एक की जाने वाली कलाबाजी जैसे नहीं किया !!! कृष्णमाचार्य की इस प्रतिभा को कोई नहीं नकार सकता की कैसे उन्होंने जिम्नास्टिक के तरीकों को एकीकृत कर के शारीरिक अभ्यास के तरीके बनाये जिसे तब तक कोई भी योग नहीं मानता था और जिसे हठ योग के तरीकों के आधार पर किसी भी प्रकार ‘योग’ नहीं कह सकते थे | साथ ही उन्होंने ‘राज निर्माता’ हठ योग को राजाओं को ख़ुश करने वाली वस्तु में बदल दिया| योग को और अधिक मज़े की वस्तु बनाने के लिए, पैलेस के आयोजनों में योग के दिखावटी तरीकों के लिए उन्होंने बच्चों का इस्तेमाल किया | यह और कुछ नहीं बल्कि बाल उत्पीड़न था | उन्हें आयुर्वेद का अच्छा ज्ञान था और वो लोगों का इलाज दवाओं से करते थे और उन्हें योग करने की सलाह देते थे | ठीक हों जाने पर वो इसका श्रेय योग की उपचार करने की शक्ति को देते थे | १९४० में कृष्णराजा वोडेयर की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी जयचामाराजेंद्र वाडियर (१९१९-१९७४ ) ने राज सम्हाला और उन्हें योग में कोई रूचि नहीं थी | राजकीय मदद बंद हो जाने के बाद कृष्णमाचार्य बड़े आर्थिक संकट में आ गए , यहाँ तक की उनके लिए अपने परिवार का पेट पालना भी मुश्किल हो गया | उन्होंने पूरे भारत में घूम कर अपने लिए शिष्य ढूंढे | वास्तव में यह उनका योग के दूसरे गुरुओं (जिनके बारे में पहले की पोस्ट में बात कर चुके हैं ) से शक्ति संघर्ष था | अपने प्रतिद्वंदियों को हराने के लिए और स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए कृष्णमाचार्य ने जवाब में जिस वस्तु की रचना की वह योग के इतिहास में सबसे बड़ा धोखा था | उन्होंने यह दावा किया की वो जो कुछ भी योग में सिखाते हैं वह नया नहीं या उनका बनाया हुआ नहीं बल्कि उन्होंने ये सब योग पर लिखे प्राचीन संस्कृत मूलग्रन्थ से सिखा है जिसका नाम ‘योग कोरुन्ता’ है और जिसे वामन ऋषि ने लिखा था | यह पुस्तक कहीं से उन्होंने खोज कर निकाली थी| याद रहे की इस पुस्तक के बारे में विवेकानंद और आदि शंकराचार्य को भी नहीं पता था | उनके शिष्य और बहनोई B.K.S Iyengar और एक दुसरे शिष्य पट्टाभि इस बात का प्रचार करने लगे | इस दावे के बावजूद, वह मूलग्रन्थ जिसे खोज निकालने का दावा कृष्णमाचार्य ने किया था उसे कभी भी इतिहासकारों के सामने प्रमाणित होने के लिए प्रस्तुत नहीं किया गया, यहाँ तक की दुसरे हिंदू धार्मिक गुरुओं के सामने भी नहीं | अर्थ यह है की कृष्णमाचार्य ने योग के उद्गम के लिए जिस पुस्तक का दावा किया वह कभी किसी ने देखा ही नहीं है क्योंकि वह पुस्तक है ही नहीं वह बस उनकी बनायी हुई बात है | भारत की स्वतंत्रता के बाद तथा मैसूर के भारत में मिल जाने के बाद , मुख्यमंत्री K.C Reddy ने अंततः योगशाला बंद कर दी | कृष्णमाचार्य परिवार के साथ मद्रास चले गए और विवेकानंद महाविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी करने लगे | आधुनिक योग जिसका जन्म जगमोहन पैलेस में हुआ उसे पाल पोस कर और योग के दुसरे संस्करणों को परिष्कृत कर के वटवृक्ष बनाने का काम उनके शिष्य B.K.S Iyengar, Pattabhi Jois, T.K.V. Desikachar, Indra Devi, and A.G.Mohan ने किया |

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तिरुमलै कृष्णमाचार्य के पास कुछ शिष्य ऐसे थे जिन्होंने उनके योग के लक्ष्य को और आगे बढ़ाने का काम किया| लेकिन उनमें से हर एक अलग अलग स्वभाव के तथा अलग पृष्ठभूमि से थे एवं सबसे बढ़कर बात ये थी की उनमे भयंकर प्रतिद्वंदिता और होड़ थी | सभी ने कृष्णमाचार्य के जीवन के कुछ अध्यायों को ही विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया | सभी ने ये दावा किया की वो ही सही हैं और दुसरे ग़लत, तथा कृष्णमाचार्य का सही ढंग से अनुकरण नहीं कर रहे हैं | १९४५ में तमिलनाडु में जन्मे A.G मोहन ने मद्रास में ‘कृष्णमाचार्य योग मंदिर’ की स्थापना की | उन्होंने योग की अपनी ही एक किस्म बनायी और वो भारतियों तथा विदेशियों को ‘स्वस्थ योग और आयुर्वेद’ नाम से सिखाते हैं और दावा करते हैं की यह योग और आयुर्वेद के उपयोग का समाकलित तरीका है | ज़ाहिर है की उन्होंने अपने गुरु की यह चाल अपना ली थी की वो आयुर्वेद की मदद से रोग का उपचार करते थे और उपचार का श्रेय योग को देते थे | अपनी वेबसाइट में वह ये दावा करते हैं की योग का यही ढंग सबसे सही है ; वेबसाइट में लिखते हैं की ‘ जहाँ योग के अलग अलग तरीके विश्व भर में प्रसिद्ध हैं वहीँ यह भी सत्य है की इसका मूल अर्थ और इसका उद्देश्य कहीं खो गया है तथा योग का अभ्यास कमतर और पेचीदा हो गया है’| उनके ब्रांड के योग का ५ दिन का short term course, मई २०१६ के लिए सिडनी (ऑस्ट्रेलिया )में 450 (approx INR 22,000) Dollar में उनकी वेबसाइट पर discount offer में उपलब्ध है अगर आप जल्दी बुक करें तो | हम यहाँ यह देख सकते हैं की बिचारे योग के इतने बड़े बाज़ार में कड़ी प्रतिस्पर्धा झेल रहे हैं , प्रतिस्पर्धा उन लोगों की वजह से जो B.K.S Iyengar के शिष्य हैं या फिर और भी दुसरे लोगों की वजह से | कृष्णमाचार्य के एक दुसरे शिष्य थे K. Pattabhi Jois (1915-2009) जो हासन (कर्नाटक) के जमींदार ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे | वो कृष्णमाचार्य के योग प्रदर्शन को देख कर योग की ओर आकर्षित हुए | अपने पुरोहित पिता से पहले ही वह संस्कृत और धार्मिक कर्म कांड की शिक्षा प्राप्त कर चुके थे | उन्होंने कृष्णमाचार्य की तरह एक क्रम में भिन्न भिन्न आसन दिखा कर योग की ओर आकर्षित करने की कला विकसित की | पट्टाभि ने इस पद्धति को ‘अष्टांग विन्यास’ कहा और ये दावा किया की उन्होंने ये प्राचीन पुस्तक ‘योग कोरुन्ता’ से लिया है | इस किताब के बारे में पिछली पोस्ट में बात हुई है | १९४८ में उन्होंने Pattabhi Jois Yoga Institute’ (Ashtanga Yoga Research Institute) मैसूर में खोला | उन्होंने यह भी दावा की उन्होंने ही B.K.S Iyengar को योग सिखाया लेकिन इएंगर इस बात को नकारते हैं | १९६४ में बेल्जियम की Andre Van Lysebeth ने दो महीने पट्टाभि के साथ रहने के बाद योग पर, ‘Yoga Self-Taught’ एक किताब लिखी जिसने पट्टाभि को विदेशों में प्रसिद्ध कर दिया और बहुत से विदेशी उनसे योग सीखने के लिए मैसूर आने लगे | उनकी प्रसिद्धी ने चरम छुए जब Madonna Louise Ciccone (American singer dancer), अंग्रेजी संगीतकार और वादक Gordon Matthew Thomas Sumner प्रसिद्ध नाम Sting, और अमरीकी अभिनेत्री Gwyneth Paltrow जैसे लोग उनसे योग सीखने लगे | वह ४ महीने कैलिफोर्निया में रहे और अपने ब्रांड के योग यानि अष्टांग विन्यास योग का प्रचार किया | उन्होंने अपने शिष्यों की मदद से अपना व्यापार सिडनी (ऑस्ट्रेलिया ) में भी स्थापित किया | पट्टाभि ,कृष्णमाचार्य के सभी शिष्यों में से सबसे अधिक विवादास्पद रहे | उनके आसन बहुत ही कठिन और पीड़ादायक होते थे| उसे करने वाले ऐसे शरीर को मरोड़ देने वाले आसनों से डर जाते थे और ये आसन ख़तरनाक थे | उनके निधन समाचार में अख़बारों ने लिखा की ‘ उनके अधिकतर शिष्य घुटनों या कमर में चोट की वजह से लंगड़ा कर चलते थे और ये चोट उन्हें योग अभ्यास के समय लगती थीं’ | उनपर बहुत बार महिला शिष्यों से यौन दुर्व्यवहार करने का भी आरोप था | उनकी मृत्यु के बाद उनके पौत्र शरत ने योग का एक नया ब्रांड बनाया जिसे नाम दिया ‘jois yoga’. एक और दुसरे शिष्य डेविड लाइफ ,जो न्यूयार्क के थे, ने ‘जीवमुक्ति योग’ नाम का योग शुरू किया | इन सब के अलावा योग को पुरे विश्व में फैलाने का बड़ा काम ‘इंद्रा देवी’ की मेहनत से हुआ जो की कृष्णमाचार्य की एक और विदेशी शिष्य थीं | Eugenie V Peterson (1899 – 2002) का जन्म रूस साम्राज्य के एक धनाढ्य परिवार में हुआ | जब रूस की क्रांति १९१७ में सफल हुई और कम्युनिस्ट सरकार ने मजदूर वर्ग के अधिकारों की स्थापना शुरू की तब बहुत से अभिजातीय या कुलीन परिवार पारंपरिक तौर पर निम्न वर्ग की सामाजिक –आर्थिक समृद्धि को मानसिक तौर पर बर्दाश्त नहीं कर पाए | वो सोवियत यूनियन से भाग खड़े हुए (शायद वैसी ही कुछ मानसिकता जिसके तहत भारत के ऊँची जाति के युवक जाति आरक्षण के विरोध में आत्महत्या कर लेते हैं ) | Eugenie अपनी माँ के साथ बर्लिन (जर्मनी ) भाग गयी और अभिनेत्री और नर्तकी बनीं | बाद में भारत में हिंदी फिल्म में काम करने के लिए उन्होंने अधिक स्वीकृति प्राप्त करने के लिए अपना नाम रखा –इंद्रा देवी | भारत में वो योग से प्रभावित हुईं और कृष्णमाचार्य की शिष्य बनीं | बाद में वो अपने पति के साथ चीन चली गयीं | यह माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने से पहले का समय था | उस समय चीन में Chiang Kaishek का राज था जो बहुत ही रुढ़िवादी, आधुनिकता के विरुद्ध , अति धार्मिक , कम्युनिस्ट विरोधी था | उसका मत था की चीन के सभी अल्पसंख्यक किसी प्रकार से पौराणिक चीनी सम्राट के ही वंशज हैं और उन सभी को प्राचीन धार्मिक संस्कृति का पालन करना चाहिए ( शायद कुछ वैसा ही तर्क जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देता है की सभी भारतीय हिंदू ही हैं और मुस्लिम या इसाई लोगों को हिंदू संस्कृति का पालन करना चाहिए ) उसने confucian धर्म को बढ़ावा दिया और ‘Guoyu’ भाषा को चीन के बड़े भाग में मान्य भाषा बनाया जहाँ लोग बहुत सी दूसरी प्राकृत भाषा बोलते थे | नृत्य और पाश्च्य संगीत को रोकने की कोशिश की | उसके अनुयायी पश्चिमी सभ्यता के वस्त्र पहने हुए लोगों पर एसिड डालने लगे| (इसकी तुलना बीफ खाने या फिर वैलेंटाइन डे के लिए संघियों द्वारा लोगों पर हमला करने से कर सकते हैं ) | उसने बर्बरतापूर्वक बहुत से किसान और मजदूर आंदोलनों को कुचल दिया | और सबसे बड़ी बात की Chiang Kaishek योग का बहुत बड़ा समर्थक था | इंद्रा देवी ने उसकी मदद से शंघाई (चीन ) में योग का स्कूल खोला और चीन में योग का प्रचार किया | बाद में वो अमेरिका गयीं और हॉलीवुड (USA) में योग स्कूल खोला और अमेरिका में योग का प्रचार किया | उन्होंने दावा किया की उनका योग अधिक प्रमाणिक है क्योंकि उन्होंने इसे पतंजलि योग सूत्र पढ़ कर सिखा है | हम पहले की पोस्ट में विस्तार से पतंजलि सूत्र की बात कर चुके हैं | महर्षि पतंजलि ने कभी भी योग आसनों की बात ही नहीं की | समझ सकते हैं की इन योग के संस्थापकों का हिंदू पारंपरिक साहित्य के बारे में ज्ञान का क्या स्तर था | बाद में उन्होंने मेक्सिको में भी योग स्कूल खोला और योग को दक्षिण अमेरिका-लैटिन अमेरिका जैसे की अर्जेंटीना, उरुग्वे आदि में भी प्रचारित किया | इंद्रा देवी भारत के प्रसिद्ध बाबा पुट्टपर्थी सत्य साईं बाबा के काफी करीब थीं | वह अन्तराष्ट्रीय योग फाउंडेशन की अध्यक्ष थीं | इन सब के अलावा कृष्णमाचार्य के सबसे विशिष्ठ शिष्य B.K.S. Iyengar थे जिन्हें आधुनिक योग के पिता के तौर पर जाना जाता है |

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बेल्लुर कृष्णमाचार सुन्दरराज अयंगार (१९१८-२०१४) का जन्म कोलार (कर्नाटक) के वैष्णव अयंगार परिवार में हुआ था | वो बचपन में बहुत से रोग जैसे मलेरिया, टाइफाइड, और कुपोषण के शिकार थे और इसके वजह से अस्वस्थ रहे | उनके पिता की मृत्यु के बाद, उनके बहनोई कृष्णमाचार्य उस समय १५ साल के B.K.S अयंगार को मैसूर बुलाया, इस वादे के साथ कि योग प्रयासों के द्वारा वो उनका स्वास्थ्य ठीक कर देंगे | कृष्णमाचार्य ने उन्हें योगासन सिखाया और उनका प्रयोग दुसरे बच्चों के साथ मैसूर राजसी दरबार में योग के तरीकों के प्रदर्शन के लिए किया | इन गुरु और शिष्य के बीच संबंध ठीक नहीं थे | एक बार कृष्णमाचार्यने कहा कि यह लकड़ी जैसा बीमार किशोर योग में कभी भी सफल नहीं होगा | वह उपेक्षित किये जाते थे और उन्हें घर के काम करने को दिए जाते थे | B K S अयंगार ने बताया कि कृष्णमाचार्य ने उन्हें २ साल के अन्दर सिर्फ १०-१५ दिन ही सिखाया | किसी प्रकार वह गुरु से अधिक तीव्र बुद्धि थे | वो बहुत से योग के तरीके खुद से सीख लेते थे और उसे दूसरों को बड़े ही सही ढंग से सिखाते थे कि कैसे धीरे धीरे किसी योग मुद्रा को कर सकते हैं | दूसरी तरफ़ , कृष्णमाचार्य बहुत ही अक्खड़ तरीके से लोगों को सिखाते थे और तब तक खाना नहीं खाने देते थे जब तक कि लोग योग मुद्रा में पारंगत न हो जाये | कृष्णमाचार्य के साथ ३-४ साल रहने के बाद B K S अयंगार योग सिखाने के लिए पुणे चले गए | उन्होंने और भी दूसरी मुद्राए पुणे में सीखी| B K S अयंगार उस समय प्रसिद्ध हुए जब अध्यात्मिक गुरु जिद्दु कृष्णामूर्ति ने उनसे योग सीखना शुरू किया | इसे उन्हें प्रसिद्ध वायलिन वादक यहूदी मेनुहिन से मित्रता का मौका मिला | १९५६ में वो USA गए और योग सिखाना शुरू किया | जब उनकी प्रसिधी बढ़ी तो उन्हें नए शिष्य मिले जैसे कि उपन्यासकार अल्दोउस हक्सले, अभिनेत्री अन्नेत्ते बेनिंग, डिज़ाइनर डोना कारन , क्रिकेट खिलाडी सचिन तेंदुलकर, अभिनेत्री करीना कपूर, इन सबकी वजह से वो काफी प्रसिद्ध हुए | वो चीन में भी काफी प्रसिद्ध थे | उन्होंने अपनी पहली किताब ‘LIGHT ON YOGA’ १९६६ में प्रकाशित की, जो अन्तराष्ट्रीय ‘BEST SELLER’ बनी | यह किताब विस्तार से हठ योग, सर्कस और जिमनास्टिक के सभी शारीरिक मुद्राओं को संकलित करती हैं | उन्होंने २०० मुद्राए बनायीं और उन मुद्राओं को बड़ी ही सफाई से संस्कृत नाम दिए जिनके अंत में आसन शब्द आता था | किताब में हर आसन को करने के लिए शुरू से लेकर एक एक स्टेप का बड़ा ही विस्तृत विवरण ६०० चित्रों के माध्यम से दिया हुआ हैं, जिसकी वजह से किताब पूरे विश्व में प्रसिद्ध हुई | पहली बार योग पर लिखी किताब थी जिसने योग शिक्षकों और खुद से योग सीखने वालों की मदद की | आम लोगों के मन में यह विश्वास जगा की हठ योगियों की वह रहस्यमयी कठिन योग मुद्राएँ और आधुनिक योग गुरुओं की योग मुद्राएँ वो भी कर सकते हैं और इसे कोई भी कर सकता है | किताब की हजारों प्रतियाँ बिकीं और उसका अनुवाद भी २० भाषाओँ में हुआ | यह किताब योग के इतिहास में मील का पत्थर है और योग के बाइबिल के रूप में देखी जाती है | एक दूसरा महत्वपूर्ण पहलु इस किताब का यह है की इस किताब ने पहली बार योग के माध्यम से रोग को ठीक करने की बात कही | अयंगार की मृत्यु हृदय गति रुकने से हुई | उनके योग की परंपरा का असर उनके गुरु कृष्णमाचार्य या मानिक राव या हरिभाई देसाई या किसी भी योग गुरु से कहीं अधिक है | स्वतन्त्र भारत में और विश्व में योग, चिकित्सा का एक नया तरीका ही बन गया |

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आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के विस्फोटक तरीके से विकास की शुरुआत औद्योगिक क्रांति के साथ हुई जिसने बहुत से मानवीय शरीर रोगों पर विजय प्राप्त करने में मदद की, वो रोग जो शताब्दियों से मानवता के लिए खतरा बने हुए थे | संक्रामक रोगों को बहुत से एंटीबायोटिक्स विकसित करके नियंत्रण में लाया जाया, कुपोषण से सम्बंधित रोगों को प्रयोगशाला में विकसित किये हुए और औद्योगिक स्तर पर बहुत से विटामिन्स और आर्गेनिक तत्त्व उत्पादित करके ऐसे रोगों पर नियंत्रण किया गया, शल्य चिकित्सा और पैथोलॉजी में विकास करके तथा बहुत से रोग को पहचानने वाले चिकित्सा उपकरण और डायग्नोस्टिक प्रणाली जैसे की X-ray, CT स्कैन, MRI के विकास से मानव जीवन स्तर में भयंकर सुधार आया और पुरे विश्व में औसत उम्र भी काफी बढ़ी | कालरा, प्लेग, क्षय रोग , स्माल पॉक्स जिससे कि बड़ी संख्या में लोग मर जाते थे, इस तरह के रोगों का पूरी तरह से इलाज संभव हो सका | किसी प्रकार पिछली दो तीन शताब्दियों में एक अलग तरह की स्वास्थ्य समस्याओं ने लोगों को अपनी चपेट में लिया जो आधुनिक जीवन शैली से पैदा हुई – हृदय रोग, टाइप २ डायबीटीज, कुछ प्रकार के कैंसर, ऑस्टियोपोरोसिस, स्ट्रोक्स, किडनी की समस्या, एलर्जी, डिप्रेशन, तनाव, नींद न आने की समस्या, कमर का दर्द, रीढ़ की हड्डी की समस्या, मायोपिया, आर्थराइटिस, कब्ज़, एसिडिटी, और भी इस तरह के बहुत से रोग | इस तरह के रोगों को ठीक करने के लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की बहुत ही विशेषज्ञता प्राप्त शाखा में जाने की जरूरत पड़ती है जैसे के एसिडिटी के लिए gastentrology | क्योकि इन स्वास्थ्य समस्यों की जड़ सिर्फ शरीर में नहीं है बल्कि हमारा शरीर किस तरह की आदतों का शिकार है, उसपे ज्यादा निर्भर करता है, इसलिए ऐसी स्वास्थ्य समस्यों के लिए एक सीधा चिकित्सा के कोर्स में समाधान नहीं है, दवा के साथ साथ हमें जीवन शैली बदलने की ज़रुरत पड़ती है | जीवन शैली बदलना सबसे मुश्किल काम हो जाता है | ज़्यादातर लोग जो समस्या के इन कारणों से अनभिज्ञ है, खास तौर से मध्य वर्ग के लोग, वो इन रोगों के उपचार पाने के लिए तत्पर रहते हैं | ज़ाहिर है कि चिकित्सा की अलग अलग पद्धतियों के पुरे विश्व में एक बड़ा लाभकारी व्यवसाय होने की पूरी संभावना पैदा होती है | इसलिए बहुत प्रकार के वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ (Alternate medical practise) जैसे कि होमियोपैथी, यूनानी , साउंड थेरेपी, रेकी, नेचुरोपैथी, मैग्नेटिक हीलिंग, मसाज थेरेपी , अरोमा हर्बल थेरेपी , म्यूजिक थेरेपी, लाइट थेरेपी, होलिस्टिक मेडिसिन , फेथ हीलिंग, फेंग शुई , एक्यूपंक्चर, क्रिस्टल हीलिंग आदि , सामने आयीं और इस वादे के साथ कि वो ऊपर बताये गए रोगों को ठीक कर सकती हैं | ये आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के विरुद्ध खड़े होते है और चिकित्सा व्यवसाय का लाभ उठाना चाहते हैं | इसी परिस्थिति में फिर सिर्फ योग पद्धति पीछे कैसे रह सकती थी ? योग गुरु इस बात को अच्छी तरह समझ सकते थे, और इसी पृष्ठभूमि में योग एक चिकित्सा पद्धति बन गयी इस वादे के साथ कि यह बहुत से रोगों को ठीक कर सकती है | योग का विकास B K S अयंगार की किताब ‘Light on Yoga ‘ १९७० में शुरू होकर एक दुसरे चरण में पंहुचा जब योग को स्वस्थ शरीर पाने का माध्यम बताया गया तथा आज योग उससे भी आगे के चरण में पहुँच चुका है जहां यह अन्तराष्ट्रीय व्यवसाय बन चुका है | योग के इतिहास को अब इसके आगे बताने की आवश्कता नहीं है क्योकि यह वर्तमान में घट रहा है जिसे हम और आप खुद ही समझ सकते हैं | योग के इतिहास को यहीं विराम देते हैं |

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योग गुरुओं ने सुना की बहुत से मध्य वर्ग या उच्च वर्ग के लोगों को मधुमेह (डायबिटीज )की समस्या है और यह समस्या इन्सुलिन से जुडी हुई है जो की पैंक्रियास ग्लैंड में बनता है और पेट के अन्दर कहीं मौजूद है | बस इसी जानकारी पर उन्होंने बहुत से आसन बताने शुरू किये जिसमे पेट पर दबाव पड़े | यह मानना बेवकूफ़ी की हद है की पेट पे दबाव पड़ने से पैंक्रियास पर दबाव पड़ेगा और इससे पैंक्रियास में ज्यादा इन्सुलिन पैदा होगा | पहली बात तो ये की पैंक्रियास , बैक बोन के पास स्थित होता है और किसी भी प्रकार का दबाव पेट पर डालने से पैंक्रियास पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता | अगर किसी भी तरह हम पैंक्रियास पे दबाव डालें भी तो इससे उस महत्वपूर्ण अंग को चोट ही पहुंचेगी ,न की उसका कोई व्यायाम होगा क्योंकि अंदरूनी अंग हमारे शरीर के बाहरी मांसपेशियों की तरह नहीं है की उसे दबा के या ऐंठ मरोड़ के आप उसका व्यायाम करा सकते है | डायबिटीज क्या है ? सभी प्रकार के कार्बोहायड्रेट जो हम खाते है जैसे चावल , रोटी , चीनी आदि वह मानव शरीर द्वारा ग्लूकोस में परिवर्तित किया जाता है और रक्त में मौजूद रहता है (ब्लड शुगर )| रक्त ग्लूकोस को पूरे शरीर की कोशिकाओं तक ले जाता है | इन्सुलिन एक प्रकार का हार्मोन है जो पैंक्रियास ग्लैंड में बनता है और कोशिकाओं (बॉडी सेल )को रक्त से ग्लूकोस लेने में मदद करता है | रक्त से लिया गया ग्लूकोस सेल में इक्कठा रहता है और ज़रुरत पड़ने पर हमारे लिए ऊर्जा में बदलता है | डायबिटीज दो प्रकार की होती है –टाइप १ जो पैंक्रियास में बहुत कम इन्सुलिन पैदा होने की वजह से होता है ; और टाइप २ की वजह है इन्सुलिन का शरीर में प्रभावी ढंग से काम न कर पाना | अगर शरीर की कोशिकाएं और अंदरूनी अंग सही ढंग से काम न कर पायें तो ग्लूकोस कोशिकाओं में नहीं जा पाता है और सेल में ग्लूकोस की कमी हो जाती है और हम थकन महसूस करते है ; और साथ ही रक्त में शुगर का लेवल बढ़ जाता है क्योंकि कोशिकाओं ने उसे अब्सोर्ब नहीं किया | यह समस्या जो की इन्सुलिन के सही ढंग से कार्य न कर पाने की वजह से (insulin resistance ) होता है उसे hyperglycemia कहते हैं | यह स्थिति जब रक्त में ग्लूकोस हो लेकिन कोशिकाओं को न मिल रहा हो , टाइप २ डायबिटीज कहते है | 90 % डायबिटीज इसी प्रकार की हैं | यह वास्तव में हमारे रहने के ढंग से पैदा हुई शारीरिक समस्या है जिसके बारे में हम पहले की पोस्ट में जान चुके हैं | व्यायाम का टाइप २ रोग को नियंत्रित करने में बहुत महत्व है | कैसे? जब हम व्यायाम करते है तो हमारे पैर , हाथ की मांसपेशियों में भरपूर तनाव होता है जिससे इन्सुलिन की मदद के बिना ही ग्लूकोस कोशिकाओं में प्रवेश कर सकता है | लेकिन याद रखें की व्यायाम के स्तर पर भी योग का इस रोग को ठीक करने में कोई योगदान नहीं है क्योंकि पेट पर दबाव डालने या शरीर को तोड़ने मरोड़ने से कुछ नहीं होगा| मेडिकल प्रैक्टिस के अनुसार , टाइप २ डायबिटीज रोगी को ३० मिनट जल्दी और तेज़ गति में सप्ताह में 5 – 6 दिन टहलना चाहिए | इससे मांसपेशियों का व्यायाम होगा और ग्लूकोस को अब्सोर्ब करने में मदद मिलेगी | अपनी सभी सीमाओं के बावजूद आयुर्वेद एक अनुभवसिद्ध वैज्ञानिक ज्ञान था जो भारत में वैद्यों के व्यावहारिक ज्ञान से पैदा हुआ | यहाँ तक की आयुर्वेद की उत्कृष्ट किताब ‘सुश्रुत संहिता ‘ कहती है की कुश्ती , कुआँ खोदना , गाय के पीछे दौड़ना , एक गाँव से दुसरे गाँव तक चल के जाना , रथ को खींचना जिसमे ब्राह्मण बैठा हो, आदि मधुमेह दूर करने के लिए अच्छे हैं | हम समझ सकते हैं की इन सभी से और कुछ नहीं बल्कि शरीर को व्यायाम मिलता है | सुश्रुत संहिता में कहीं भी योग करने की सलाह नहीं दी गयी है | क्या महर्षि सुश्रुत आज के योग गुरुओं से कम जानते थे ? बहुत से बच्चे और बड़े लोगों को टाइप १ डायबिटीज की समस्या हो जाती है जिसके लिए इन्सुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता है ;और कोई इलाज नहीं | कोई भी योग गुरु इस बात का दावा नहीं कर सकता की वह टाइप १ डायबिटीज ठीक कर सकता है क्योंकि उस दौरान रोगी मर जायेगा |

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B.K.S इएंगर की पुस्तक ‘Light on Yoga’ के अनुसार आँखों की समस्याओं के लिए सबसे अच्छा आसन ‘शीर्षासन’ को बताया गया है | जैसा की हम जानते हैं की विश्व में लोगों में अंधेपन की समस्या दो बड़े कारणों से होती है जिसका नाम है ग्लूकोमा और कैटरेक्ट | ग्लूकोमा की समस्या का कारण यह है की आँख के अन्दर के द्रव्य का दबाव बढ़ जाता है और जिसकी वजह से ऑप्टिक नर्व को आघात पहुंचता है (damaging the optic nerves)| सच्चाई यह है की जब हम शीर्षासन करते हैं तो द्रव्य का यह दबाव और बढ़ता है जिससे स्तिथि और ख़राब हो जाती है , न की आँख को कोई फायदा होता है | चन्नई के एक जाने माने आँख के अस्पताल (शंकर नेत्रालय ) में हुए रिसर्च के अनुसार शीर्षासन करने के समय आँख में यह दबाव साधारण से दोगुना हो जाता है , जो ग्लूकोमा की समस्या को भयंकर रूप से बढ़ा सकता है | (Refer Intraocular pressure changes and ocular biometry during Sirsasana (headstand posture) in Yoga practitioners: Baskaran M, Raman K, Ramani KK, Roy J, Vijaya L, Badrinath SS 2006 August 113(8): 1327-32). कुछ इसी प्रकार के रिसर्च परिणाम British journal of Ophthalmology में भी प्रकाशित हुए | (Refer British Journal of Ophthalmology, October 2007, 91(10): 1413-1414: Yoga can be dangerous – Glaucomatous visual field defect worsening due to postural yoga). Einhorn Clinical Research center , New York, USA में हुए रिसर्च के अनुसार आंख के रोगों के लिए जिन आसनों को बताया गया है जैसे की अधोमुख आसन , हलासन , उत्तानासन और विपरीत करणी आदि ; से भी आँख को हानि पहुँचती है | (Refer Avoiding Inversions – Intraocular Pressure Changes and Common Yoga Poses: Jessica V. Jasien, MEn, Robert Ritch, MD Einhorn Clinical Research Center, New York). Indian Journal of Ophthalmology ने जनवरी –फरवरी ,२००९ में एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमे ५५ साल के एक व्यक्ति ने शीर्षासन करने के समय २ मिनट के अन्दर अपनी दृष्टि खो दी | रिसर्च में यह साबित हुआ है की blocking of central retinal vein की वजह से यह हुआ और यह काफी खतरनाक हो सकता है | ऐसे सैकड़ो रिसर्च परिणाम हैं जो बताते हैं की अधिकतर आसन या तो खतरनाक हैं या फिर उनसे कोई फायदा नहीं है | Hydrocele (टेस्टिकल में सुजन की समस्या ) या elephantiasis(पैर का बहुत मोटा होना ) की समस्या में भी शीर्षासन करने की सलाह दी जाती है | इयांगर ने अपनी चिकत्सा विज्ञान और मानव शरीर की अज्ञानता के चलते शायद यह सोचा होगा की शीर्षासन करने से यह सुजन नीचे की और चली जाएगी तथा आँख का व्यायाम होने से आँख की समस्या दूर हो जाएगी | जैसा की पहले बता चुके हैं की योग आसन सर्कस या जिमनास्टिक या मार्शल आर्टिस्ट या बॉडी बिल्डर या हठ योगियों द्वारा बनाया गया है ; human biologists या medical practitioners द्वारा नहीं | आधुनिक योग गुरुओं द्वारा मेडिकल प्रैक्टिस के स्थान पर आसन करने की सलाह दिए जाने को अपराधिक जुर्म की श्रेणी में रखा जाना चाहिए | भारत के सभी प्रगतिशील लोगों को इस अंधविश्वास के खिलाफ एक संवैधानिक नियम लाने की कोशिश करनी चाहिए |

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१९७२ में एक जाने माने न्यूरो फिजियोलॉजिस्ट W Ritchie Russel ने ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के एक लेख में लिखा की कुछ योग की मुद्राओं से युवा और स्वस्थ लोगों को भी स्ट्रोक (लकवा मारना ) हो सकता है | (Refer British Medical Journal March 1972, 1:685, Yoga and vertebral arteries) इसका कारण है की वर्टिब्रल आर्टरी जो मस्तिष्क तक रक्त लाती हैं ,योग की कुछ मुद्राओं में उनको चोट पहुँचती है | basilar artery दो वर्टिब्रल आर्टरी के जुड़ने वाले बिंदु से निकलती है जो मस्तिष्क के ख़ास हिस्सों को रक्त पहुँचाती है जैसे की सेरिबैलम जो मांसपेशियों को निर्देशित करता है , occipital lobe जो आँख के संवेगों को बिम्ब में परिवर्तित करता है , thalamus, और pons जो सांस लेने में महत्वपूर्ण है | १९७३ में एक २८ वर्षीय महिला को स्ट्रोक हुआ जब वह Cornell University में उर्ध्व धनुरासन कर रही थी | उस समय CT स्कैन जैसी इमेजिंग तकनीक विकसित न होने के कारण , डॉक्टर ने उसके मृत शरीर पर विस्तृत ऑपरेशन किया | उन्होंने पाया की उसकी बायीं वर्टिब्रल आर्टरी जो पहले दो cervical vertebrae के बीच से होकर जाती है , वह बहुत ही ज्यादा दब गयी थी और आर्टरी जो cerebellum को रक्त ले जाती हैं वह बुरी तरह से अपनी जगह से हट गयी थीं | सर्जन लोगों ने सर का हिस्सा खोल कर देखा और पाया की cerebellum के बाएं अर्ध हिस्से को रक्त नहीं मिला था जिससे मस्तिषक के ऊतक मर गए थे | १९७७ में , न्यूरोलॉजी जर्नल ने लिखा की एक २५ वर्ष का व्यक्ति अस्पताल में आया जिसे सब कुछ धुंधला दिख रहा था , घोंटने में परेशानी थी और शरीर के बाएं हिस्से को नियंत्रण करने में परेशानी थी और यह सब सर्वांग आसन करने के समय हुआ | (Refer Hanus SH, Homer TD, Harter DH: Septemeber 1977; 34(9): 574-5: Vertebral artery occlusion complicating yoga exercises).मेडिकल जाँच में पता चला की लेफ्ट वर्टिब्रल आर्टरी में ब्लाक था और मस्तिष्क में रक्त नहीं जा सका था | वह व्यक्ति डेढ़ साल से हर सुबह इयांगर के बताये अनुसार योग आसन कर रहा था| योगासनों में सर्वांगासन का महत्व है क्योंकि उनका यह अंध विश्वास है की इससे सभी अंगों को व्यायाम मिलता है | लेकिन सत्य क्या है ? सर्वांग आसन से सिर्फ हानि पहुँचती है , यहाँ तक की मृत्यु भी हो जाती है , जैसा की हमने उदहारण में देखा | १९९३ में हांग कांग में एक ३४ वर्षीय महिला को दो महीने योग अभ्यास करने के बाद स्ट्रोक हुआ | एंजियोग्राफी में पता चला की basilar artery में intraluminal clot भर गया था | (Refer Clinical and Experimental Neurology Journal, 30:104-109: Basilar Artery occlusion following Yoga exercise). २००३ में अमेरिकन जर्नल ऑफ़ न्यूरो रेडियोलोजी ने एक ३४ वर्षीय एशियन महिला का केस प्रकाशित किया जो हॉस्पिटल में rapidly progressive gait difficulties और बोलने में परेशानी की वजह से लायी गयी जिसने योग की कक्षाएं की थी जिनमे neck flexion and extension की क्रिया शामिल थी | गंगा राम हॉस्पिटल (दिल्ली ) ने बताया है की एक घटना में एक ६३ साल के वृद्ध व्यक्ति की हाथ और पैर उँगलियों में लम्बे समय से (5 महीने ) सिहरन और सुन्न पड़ने की शिकायत थी और बाद में जोड़ों में अकडन तथा कमजोरी हो गयी ,साथ ही अधिक युरीनेशन की ज़रुरत पड़ती थी | उन्हें लकवा मार गया | वह रोज़ शीर्षासन करते थे | सर्वाइकल स्पाइन के x –ray और MRI में यह सामने आया की blockage of vertebra and cervical cord compression (Refer P. Sethi, Journal of Neurology, Compressive Cervical myelopathy due to sirsasana, a yoga posture). जब योग व्यायाम के तरीके ड्रिल मास्टरों ने बनाये हों तो और क्या होगा ? ज़ाहिर है की यही होगा | किसी प्रकार भारत के दक्षिण पंथी लोग इस अन्धविश्वास को फैलाने में सफल रहे हैं |

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श्री श्री रविशंकर (SSR ) का जन्म १९५६ में पापनाशम (तमिलनाडु ) में हुआ और उन्होंने अपनी धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत, एक कार्यकर्ता के तौर पर , भावातीत ध्यान के गुरु महर्षि महेश योगी के नव हिन्दू पुनरुत्थान आन्दोलन से की | एक धार्मिक संस्थान चलाने के मैनेजमेंट गुण सीखने के बाद , SSR ने अपना आध्यात्मिक सस्थान बनाया जिसको नाम दिया ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग ‘ (AOL ) और अपनी ध्यान की क्रिया बनायीं जिसे ‘सुदर्शनक्रिया’ (SKY ) कहते हैं | भले ही SSR ये कहें की SKY उन्होंने बनाया है , वास्तविकता यह है की यह बाबा रामदेव द्वारा प्रसिद्ध किया गया भस्त्रिका प्राणायाम का ही एक और रूप है तथा बहुत से योगी और बाबा भारतीय मध्यकाल के हठ योगियों के समय से इसे जानते हैं| पूरे विश्व मे हजारों अनुयायी और एक अध्यात्मिक संस्थान जो की १५६ देशों में फैला हुआ है , उसका मुखिया होने की वजह से , SSR के पास अत्यधिक धन ,बल और राजनैतिक बल है | लेकिन उनके खिलाफ भयंकर आलोचनाएँ हैं जो पहले उनकी संस्था से जुड़े रह चुके लोगों ने की हैं | AOL के एक पूर्व शिक्षक जो SKY सिखाते थे उन्होंने बताया की “ एक बार जब मैं SKY सिखा रहा था तो एक भक्त बेहोश हो गया , और चूँकि यह अक्सर होता ही रहता है , इसके लिये इलाज है की उसे वह फूल सुंघाया जाये जो गुरूजी (SSR ) की फोटो के पास रखा हो | लेकिन उससे कुछ फायदा नहीं हुआ | मैंने एक और तरीका अपनाया और उसे वह शाल सुंघाई जो गुरूजी ने मुझे भेंट की थी | उससे भी कुछ नहीं हुआ | एक घंटे के बाद , अंत में मैंने डॉक्टर को बुला लिया | सौभाग्य से ,तब तक उस भक्त को होश आ गया | “ एक भक्त जो पहले नशा लेता था और बाद में AOL में आया उसने संस्था छोड़ने के बाद अपने ब्लॉग में यह बताया की मुझे SKY करने के समय वैसी ही अनुभूति होती थी जैसी की ड्रग्स लेने पर | एक और पूर्व भक्त ने शिकायत की कि वर्षों SKY करने के बाद उसकी सोचने , याद रखने और केन्द्रित करने की शक्ति पर असर हुआ | अभी वह न्यूरोलॉजिस्ट की चिकित्सा में है | जब बहुत से पूर्व AOL लोग जिन्हें परेशानी हुई थी , वो एक साथ अपनी बात ब्लॉग में लिखने लगे तो AOL के USA के व्यवसाय पर असर पड़ा | AOL ने ब्लॉग के खिलाफ केस किया , कोर्ट ने ब्लॉग को बनाये रखने की अनुमति दी लेकिन आगे और खिलाफ लिखने के लिए मना किया | पूर्व AOL भक्तों ने दुसरे नाम से एक और ब्लॉग शुरू किया और अपना लेखन जरी रखा | http://artoflivingfree.blogspot.ca/ ,https://beyondaolfree.wordpress.com/. पूर्व भक्तों ने ऐसा क्यों किया और क्या है सच्चाई? कैसे सांस को अपने तरीके से नियंत्रित करने की क्रिया में लोग बेहोश होते है या इससे मस्तिष्क को चोट कैसे पहुँचती है ?

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जीव विज्ञान में हुई नयी और आधुनिक खोजों ने मस्तिष्क , आत्मा , अध्यात्म , मनोभाव , अनुभूति ,स्मृति , विचार , सोचने की क्रिया और भाषा जैसी गुत्थियों के बारे में हमारी समझ को काफी हद तक बढ़ाया है | Francis Crick एक महान वैज्ञानिक थे जिन्हें DNA स्ट्रक्चर की खोज के लिये नोबल प्राइज मिला | उन्होंने साधारण लोगों की समझ के लिए , आधुनिक विज्ञान के अनुसार ‘BODY –MIND ‘ पहेली को संक्षेप में समझने के लिए एक प्रसिद्ध किताब लिखी जिसका नाम था “The Astonishing Hypothesis: The Scientific Search for the Soul”.आधुनिक वैज्ञानिक समझ के अनुसार जो भी हमें मन ,आत्मा या इसके प्रकार्य लगते हैं , उसमे कुछ भी अलौकिक या आध्यत्मिक नहीं बल्कि वो मानव शरीर के सबसे जटिल अंग ‘मस्तिष्क ‘ के कार्यों की अभिव्यक्ति है | मस्तिष्क, सबसे महत्वपूर्ण , सबसे जटिल और सबसे अधिक ऊर्जा लेने वाला मानव शरीर का अंग है | इसलिए हृदय से आने वाले रक्त का १५ % (750ml/minute or 50-54ml per 100g brain tissue) भाग सिर्फ मस्तिष्क को रक्त पहुँचाने में जाता है | रक्त प्रवाह की इस गति का कम होना या ज्यादा होना , दोनों ही मस्तिष्क के लिए हानिकारक हैं | यदि किसी प्रकार मस्तिष्क को यह रक्त प्रवाह कम होता है तो , मस्तिष्क के कुछ ऊतक ऑक्सीजन की कमी के कारण मर जाते हैं | यदि प्रवाह अधिक है तो , intracranial दबाव बढ़ जाता है जिसके परिणाम में मस्तिष्क के ऊतक की क्षति होती है | इस प्रकार , मस्तिष्क को रक्त प्रवाह बहुत ही नियम से नियंत्रित होता है जो एक जटिल प्रक्रिया है और cerebral blood vessels के सिकुड़ने और फैलने पर निर्भर करती है , और जो की रक्त के दबाव पर आधारित होता है | किसी प्रकार यह प्रक्रिया रक्त में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड से प्रभावित होती है | योग गुरु ये दावा करते हैं की जब हम जोर जोर से गहरी साँसे लेते हैं ( रविशंकर की सुदर्शन क्रिया या रामदेव का भस्त्रिका प्राणायाम ) तो हमारे मस्तिष्क को अधिक ऑक्सीजन मिलता है जिससे हम अधिक स्वस्थ और मानसिक तनाव से मुक्त महसूस करते हैं | इन्होने कहीं सुना की ऑक्सीजन शरीर की ज़रुरत है और वह हवा में मौजूद है | पर इन्हें मानव शरीर का विस्तृत ज्ञान नहीं है | तथ्य क्या है ? जब हम बहुत तेज़ी से सांस लेते हैं तो शरीर में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर कम होता है जिससे स्वयं नियंत्रित तंत्र जो मस्तिष्क को रक्त भेजता है , वह रक्त का प्रवाह कम कर देता है | तो हमारे मस्तिष्क को ऑक्सीजन कम मिलती है न की अधिक | मस्तिष्क को कम रक्त प्रवाह से हमें एक हल्केपन का एहसास होता है और हम तनाव मुक्त महसूस करते हैं लेकिन यह हमारे लिए हानिकारक है क्योंकि इससे बहुत से ब्रेन सेल मर जाते हैं | इसका विपरीत होता है यदि कार्बन डाइऑक्साइड रक्त में बढ़ जाये तो| पर्वतारोही धीरे धीरे सांस लेते है जब वे थके हुए होते हैं तब भी , क्योंकि वो जानबूझ कर रक्त में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ाना चाहते हैं | इससे रक्त का प्रवाह मस्तिष्क को बढेगा जिसकी ठन्डे और ऊचाई पर ज़रुरत होती है , जब खतरनाक पर्वतारोहण करते हैं | जैसा की पर्वतारोहियों ने धीरे सांस लेने का फायदा समझा की वो इससे अधिक चुस्त , सचेत और निपुण रह सकते है , वैसे ही आधुनिक तंत्रिकीय विज्ञान के विकास के पहले प्राचीन काल में लोगों ने जीवन के अनुभव से गहरी सांस का फायदा समझा | दोनों ही तरीके रक्त प्रवाह के स्व नियंत्रित तंत्र में गड़बड़ी पैदा करने के तरीके हैं और जिसके खतरनाक परिणाम का उन्हें ज्ञान नहीं था | उन्हें सिर्फ इसके फाएदे पता थे | लेकिन तेज़ सांस लेने के क्या फायदे हैं ? यह एक प्रकार की आध्यत्मिक , चमत्कारी अनुभूति पैदा कर सकता है ; लेकिन ब्रेन सेल को अघात पहुँचाने की कीमत पर |

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आध्यात्मिकता सिर्फ भारतीय संस्कृति में ही नहीं है | आध्यत्मिकता , चमत्कार , रहस्यवादी अनुभूतियों के लिए मानव की खोज मानव इतिहास में प्राचीन समय से है | मनुष्यों ने आनंददायक रहस्यमयी अनुभूतियों को प्राप्त करने के लिए स्वयं को कला , संगीत और साहित्य में लगाया ; या मदिरापान , ड्रग्स जैसी हानिकारक वस्तुओं में भी ; या अपने शरीर को अप्राकृतिक मुद्राओं,तनाव या परिवेश में डाला | सांस को विशेष प्रकार से लेना , आसन मुद्राएँ , ध्यान आदि की शुरुआत मानव की इन्ही आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से हुई | इसके साथ ही मानवों ने तार्किक समझ और तर्कसंगत ज्ञान को भी महत्व दिया ; और अनुभवसिद्ध तथा वस्तुगत निष्पक्ष पूछ ताछ जिससे उसे प्रकृति को समझने में मदद मिली ,उसे भी अपनी सोच में स्थान दिया क्योंकि इससे उसे अधिक सभ्य पशु बनने में मदद मिली और इसकी वजह से ही वह आधुनिक युग तक पहुँच सका | किसी समाजशास्त्रीय वजह से , किसी प्रकार यह वस्तुगत पूछ ताछ की मानव विशेषता को भारत में दबा दिया गया और रहस्यवादी समझ को बढ़ावा मिला | यह एक कारण है की भारत विश्व में आध्यत्मिक देश के रूप में देखा जाता है | बहुत से भारतीय इसपर गर्व महसूस करते हैं लेकिन यह तो शर्म का विषय होना चाहिए क्योंकि इसकी वजह से ही भारत का विकास बाधित हुआ | संघी लोग ‘ध्यान ‘ को महान भारतीय परंपरा समझते हैं | लेकिन सच्चाई क्या है ? इस तरह की परंपरा पूरे विश्व में है और इस तरह की क्रियाओं के ४० से अधिक प्रकार अलग अलग देशों में मिलते हैं | दुर्भाग्य से सुदर्शनक्रिया या प्राणायाम जैसी क्रियाओं को अध्यात्मिक धार्मिक संरक्षण मिलता है और अब तो संघियों द्वारा राजनैतिक सरंक्षण भी | इसलिए इसका इतना सम्मान है | पश्चिमी देशों में तेज़ सांस लेना एक सामाजिक समस्या है | सभी जानते हैं की जब बच्चे किशोर अवस्था में पहुँचते हैं तो उनमे बहुत से शारीरिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होते हैं | इस उम्र (१० -१६ ) में USA और दुसरे देशों में बच्चे ‘choking game’या ‘blacking out’ गेम खेलते हैं जिसमे उन्हें विशेष अनुभूति होती है और यह गेम साँसों को नियंत्रित करने का ही खेल है | कुछ तकनीक वो ऐसी इस्तेमाल करते हैं जिसमे उन्हें बहुत आनंद और शांति मिलती है तथा यह उन्हें मानसिक तनाव में आराम देता है , लेकिन यह बहुत ही खतरनाक है और बहुत से किशोर बच्चे इसे करने के समय मर गए | किसी भी प्रकार के ड्रग्स का विक्रय अमेरिका और यूरोप के देशों में गैरकानूनी है | इसलिए जो किशोर इसे नहीं पाते हैं वह choking game में इस आनंद को प्राप्त करना चाहते हैं | इन देशों में यदि आप बच्चों को इस तरह की किसी संदिग्ध choking game की अवस्था में देखते हैं तो मुफ्त पुलिस हेल्पलाइन को फ़ोन कर के सूचना दे सकते हैं , ताकि बच्चों को बचाया जा सके | दुर्भाग्य से , choking game के भारतीय रूप (सुदर्शन क्रिया या प्राणायाम ) को भारत में बड़े भी करते हैं वो भी योग गुरुओं को भारी फीस या चंदा दे कर के | और योग गुरुओं की चांदी है | जब किशोर और बड़े होते हैं तो उनका यौन विकास तेज़ी से होता है और उनकी रोमांच प्राप्त करने की इच्छा जिसका अनुभव उन्हें choking game में होता है ; वह एक नयी चीज़ को जन्म देता है जिसको Auto erotic asphyxia (AeA) कहते हैं | इसका उद्देश्य यौन आनंद और कामुक भावनाएं पैदा करना होता है | AeA कामुक भावनाओं का आनंद लेने की एक असामान्य इच्छा है | AeA करने का एक तरीका यह है की गले में रस्सी कस कर मस्तिषक को रक्त नियंत्रित करना ; लेकिन यह खतरनाक है और इसमें जान जाने का खतरा है | David Carradine, हॉलीवुड अभिनेता थे और उनकी मौत ऐसा ही कुछ AeA करने के वक्त हुई | मध्ययुग में बहुत से हठ योगियों ने कुछ इसी तरह की क्रियाएं बनायीं जैसे की खेचरी मुद्रा ,वज्रोली मुद्रा आदि ; जिसमे सांस को नियंत्रित करके यौन और कामुक गूढ़ भावनाओं का आनंद लिया जा सके | American Psychiatric Association के अनुसार इस प्रकार की क्रिया mental disorders का परिणाम है जिसमे असामान्य यौन इच्छाएं जन्म लेती हैं | AeA को करने वाले लोग इसे गोपनीय रखते हैं | लेकिन आजकल योग की लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकृति के चलते बहुत से पश्चिमी देशों के लोग सुदर्शन क्रिया करने के लिए उत्सुक हैं और हठ योग पढ़ रहे हैं जिसमे इस तरह की क्रियाओं का वर्णन है | कुछ भारतीय जो संघी सोच के समर्थक हैं और पश्चिमी देशों में रहते हैं और , वो गर्व महसूस करते हैं की पश्चिमी लोग हमारी भारतीय परंपरा को अपना रहे हैं | ऐसी समझ और सोच पर हम सिर्फ तरस खा सकते हैं और कुछ नहीं |

पिछली पोस्ट में हमने समझा की सांस को अप्राकृतिक तरीके से नियंत्रित करने के बुरे परिणाम हो सकते हैं और इसपर हुई रिसर्च भी यही कहती हैं | योग पर हुए शोध , योग पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं | इस पोस्ट में शोध के परिणामों को थोडा और देखेंगें | एक इंटरव्यू में श्री रविशंकर ने कहा की हाइपरटेंशन के लिए ३०० क्रोमोजोम ज़िम्मेदार हैं , और सुदर्शन क्रिया इन्ही ३०० क्रोमोजोम को नियंत्रित करती है | आप इसे यहाँ देख सकते हैंhttp://www.artofliving.org/ch-fr/sudarshan-kriya-faq-0. इसे यहाँभी देख सकते हैंhttp://qnawithsrisri.artoflivinguniverse.org/…/qna-of-day_2…,http://wisdomfromsrisriravishankar.blogspot.ca/…/there-is-w… ,http://learnsudarshankriya.weebly.com/. हम सभी जीव विज्ञान पढ़ते हैं और जानते हैं की किसी विशेष प्रकार से सांस लेने से क्रोमोजोम पे कोई असर नहीं पड़ सकता और मानव शरीर में सिर्फ ४६ क्रोमोजोम होते हैं , ३०० नहीं | आर्ट ऑफ़ लिविंग ने अपनी वेबसाइट पे कुछ रिसर्च पेपर पब्लिश किया, NIMHANS में एक टीम द्वारा किया गया शोध जिसके अध्यक्ष डॉ. Janakiramaih थे . उस शोध के पीछे की सच्चाई भी समझना ज़रूरी है | NIMHANS एक जाना माना इंस्टिट्यूट है जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य की दिशा में कार्य करता है | Dr. Janakiramaiah ने AOL के दावों पर आपत्ति जताई और कहा की शोध पूरा होने से पहले ही AOL ने सुदर्शन क्रिया के प्रभावों को अच्छा बता दिया| ऐसे कोई परिणाम उन्हें नहीं मिले थे| डॉ कहते हैं की “ सुदर्शन क्रिया करने से आपके हाथ और पैर की उँगलियों में सिहरन पैदा होती है , लेकिन यदि आप लम्बे समय तक उस प्रकार से सांस लेते रहेंगे तो आप अपने शरीर को बहुत ज्यादा ऑक्सीजन उड़ेल रहे हैं और उसे hyperventilate कर रहे हैं और आप जो महसूस करते हैं वह हाइपर वेंटिलेशन का मानसिक प्रभाव है |” इस तरह के सभी प्रयास , एक अवैज्ञानिक बात को वैज्ञानिक साबित करने के लिए झूठ का सहारा लेते हैं जिससे भारत के वैज्ञानिक शोध पर प्रभाव पड़ता है | (Refer the research theses of Shirisha Shankar, The art of living – The marketing of identity through nationality and spirituality. http://etd.lsu.edu/…/etd-04…/unrestricted/Shankar_thesis.pdf ).

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एक आर्टिकल (http://www.bloomberg.com/…/harvard-yoga-scientists-find-pro…) को आजकल संघी लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है यह बताने के लिए की योग को वैज्ञानिक आधार प्राप्त है | मेरी पहले की एक पोस्ट में किसी ने कमेंट में इसका उदाहरण दिया था | इस तरह के लेख तथ्य को तोड़ मरोड़ कर योग के पक्ष में लिखते हैं | यह पोस्ट उसका जवाब है | हार्वर्ड के मनोवैज्ञानिक John Denninger ने ७० लोगों को लेकर ‘कुंडलिनी योग ‘ नाम से कुछ किया , जिसमे ध्यान , प्राणायाम और मंत्र पढ़े | इस आर्टिकल में एक फोटो भी है जिसमे एक व्यक्ति बॉम्बे में बैठा सांस का कुछ व्यायाम कर रहा है | आप इस आर्टिकल के स्तर को खुद ही आंक सकते हैं | John Denninger ध्यान के अलावा बहुत से शोध alternate medical practices पे करते हैं | चीन में Tai Chi (योग जैसा ही ) सिखने के बाद उन्होंने ये कहा की सांस लेने में कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण और गूढ़ है . यही बात तो श्री श्री रविशंकर भी करते हैं | इस आर्टिकल में एक गलत ढंग से रिसर्च पेपर को इस्तेमाल किया गया है , जिसे Elizabeth Blackburn ने लिखा है और जो कहता है की 12 minutes का योग ध्यान आठ हफ़्तों के लिए करने से telomerase की क्रिया बढती है और तनाव से उम्र पर प्रभाव को कम करती है | सच्चाई यह है की यह अधूरी स्टडी है जो सिर्फ ३९ सैंपल पे की गयी और जिसको बड़े सैंपल पे करना बाकि है , तथा वो लोग कोई योग या ध्यान नहीं बल्कि आराम देने वाले कुछ संगीत सुनते थे | (Refer the research paper: A pilot study of yogic meditation for family dementia caregivers with depressive symptoms: effects on mental health, cognition, and telomerase activity: Lavretsky H, Epel ES, Siddarth P, Nazarian N, Cyr NS, Khalsa DS, Lin J, Blackburn E, Irwin MR).http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC3423469/ रूस की वैज्ञानिक Alexey Olovnikov ने शरीर पर उम्र का प्रभाव पड़ने का कारण क्रोमोजोम के सिरों पे पाए जाने वाले Telomere को बताया , जो क्रोमोजोम की सुरक्षा करते हैं और enzyme Telomerase के मौजूद होने की बात कही | बाद में Elizabeth Blackburn ने Telomerase की खोज भी की | लोग जो अधिक तनाव और कठिन परिस्थितियों में रहते हैं , उनपर उम्र का असर जल्दी पड़ने और कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है | उन्होंने इसके लिए प्रयोग किये और Telomere पर तनाव के प्रभाव का अध्ययन किया | प्रयोग के दौरान उन्होंने तनाव कम करने के बहुत से तरीके अपनाये जिसे mindfulness meditation कहा | वो कहती हैं “mindfulness meditation की वैज्ञानिक समझ बुद्ध के अध्त्यात्मिक अभ्यास से बिल्कुल अलग है| हम रोगी को ठीक करने के लिए विभिन्न शारीरिक और मानसिक परिस्थितियों का इस्तेमाल करते हैं और शरीर के जटिल तकनीक को समझने की कोशिश करते हैं | इसलिए हम इस बात पर जोर देते हैं की इस धर्मनिरपेक्ष रोग उपचार के तरीके को बुद्ध या दुसरे धार्मिक तरीकों से न जोड़ें |” . (Refer the research paper, Can meditation slow rate of cellular aging? Cognitive stress, mindfulness, and telomeres: NCBI: Elissa Epel, Jennifer Daubenmier, Judith T. Moskowitz, Susan Folkman, and Elizabeth Blackburn). http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC3057175/ उन्होंने कुछ ऐसी तकनीक अपनाई थी जिसमे एक वस्तु पर लगातार केन्द्रित कर के कुछ शब्दों को लगातार बोलना ताकि मस्तिष्क तनाव देने वाली बात से हट सके | ये ऐसा ही है जैसे कभी अपने काम में तल्लीन वैज्ञानिक अपनी दिनचर्या और खाना पीना भी भूल जाते हैं | यह एक वैज्ञानिक प्रयोग था और पश्चिमी देशों में लोग ध्यान को बुद्ध से जोड़ते हैं तथा योग को हिन्दू धर्म से , Elizabeth Blackburn ने यह साफ़ कर दिया की यह mindfulness meditation धार्मिक तरीकों से अलग है | ये प्रयोग यह साबित करते हैं की कुछ भी अलौकिक नहीं , सभी कारण भौतिक और वस्तुपरक ही हैं |चिकित्सा के क्षेत्र में एक नया विकास हुआ है जिसे mind-body medicine कहते हैं | इसमें कुछ शोध ऐसे हुए हैं जो शरीर पर मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अध्ययन करते हैं , जिनपर लम्बे समय से ध्यान नहीं दिया जा रहा था | ध्यान देने वाली बात यह है की यहाँ माइंड का आशय मस्तिष्क की क्रिया से है जिसका आत्मा या ऐसे कुछ पर्यायवाची से सम्बन्ध नहीं है | लेकिन भाषा में इसे किसी अलौकिक वस्तु की नज़र से देखा जाता है , इसलिए चिकित्सा के इस क्षेत्र में बहुत से छद्म वैज्ञानिक ढोंगी , holistic philosophers और इसाई धार्मिक वर्ग के लोग अपने धर्म को वैज्ञानिक आधार देने की कोशिश में हैं | कोई इस बात से इंकार नहीं कर सकता की ध्यान करने से मानवों में एक अध्त्यात्मिक गूढ़ भावना जन्म लेती है लेकिन वस्तुवादी समझ ये कहती है की इसमें कुछ भी अलौकिक या न समझ में आने वाला या मोक्ष दिलाने वाला नहीं है , जैसा की धार्मिक वर्ग कहते हैं , तथा यह पूरी तरह से समझा जा सकता है | आज हमें इन अनुभूतियों के सही भौतिक कारण पता हैं |

 

4 thoughts on “योग के रहस्यों का तोड़ (YOGA – A CRITICAL STUDY)

  1. I appreciate your work and writing on yoga It will be helpful to know more about my thinking. thank you.

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  2. mai aap ke dwara yog pr di gyi jankari se sehmat hu , apke dwara or bhi yog pr koi jankari ho to kripya mujhe hindi me bhejne ka kast kre . mai keval hinid e hi apke sath vartalap krne me smarth hu.

    dhanyawad
    Pooran Mal Meena
    9413872005

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  3. एक बात तो पक्की है आपमें विवेक की कमी है और आपके इस लेख में झलकता है और आप योग को महज अज्ञान ही बताती है ये आपकी कुंठित बुद्धि को प्रदर्शित करता है

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